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श्राद्ध भोज / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
उदासी छँट चुकी थी
जैसे कई-कई दिनों बाद
छँटता है माघ में कुहासा
दुख भरे बारह दिनों
और कोई फल पक कर तैयार हो चुका हो
तेरहवें दिन
कि जैसे छप्पर पर लदे कोहरे में
अचानक आ गई हो मिठास
कटहल कटने को हो तैयार
लहलहा उठा हो बाड़ी-झाड़ी का साग
और शुरू हो चुकी हो बच्चों की धमा-चौकड़ी
पिछवाड़े में कुत्तों की चहलकदमी
भोज भंडारे की हो-हो
दही घर में बिल्लियों पर सख़्त नज़र
लपलपाती जीभ
सबने खाए श्राद्ध-भोज
उदासी ढोने का
मीठा फल !