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श्रावण-मेघ / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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बज उठे व्योम में घन - मृदंग ,
तांडव - रत विद्युत् - अंग - अंग.

विक्षिप्त बरसतीं उत्पातें ,
गरजतीं मत्त प्लावित रातें ;
घन - घन से सघन घनाघातें ,
करतीं सब का उत्साह भंग .

फुत्कार रही झंझा सरोष ,
करवटें ले रहा असंतोष ;
श्रावण जैसे आक्रोश - कोष ,
विचलित भय-कम्पित विश्व दंग .

उद्धत मेघों का संघर्षण ,
विक्षुब्ध घोष ,क्रोधित वर्षण;
आतंक - प्रसारण ही हर्षण ,
भू- नभ में छाया प्रलय - रंग ..

(गीति-बाँसुरी बजी अरी!, २००३)