श्रीकृष्ण-जयन्ती / जयशंकर प्रसाद
कंस-हृदय की दुश्चिन्ता-सा जगत् में
अन्धकार है व्याप्त, घोर वन है उठा
भीग रहा है नीरद अमने नीर से
मन्थर गति है उनकी कैसी व्याम में
रूके हुए थे, ‘कृष्ण-वर्ण’ को देख लें-
जो कि शीघ्र ही लज्जित कर देगा उन्हें
जगत् आन्तरिक अन्धकार से व्याप्त है
उसका ही यह वाह्य रूप है व्योम में
उसे उजेले में ले आने को अभी
दिव्य ज्योति प्रकटित होगी क्या सत्य ही
सुर-सुन्दरी-वृन्द भी है कुछ ताक में
हो करके चंचला घूमती हैं यहाँ -
झाँक-झाँककर किसको हैं ये देखती
छिड़क रहा है प्रेम-सुधा क्यों मेघ भी
किसका हैं आगमन अहो आनन्दमय
मधुर मेध-गर्जन-मृदंग है बज रहा
झिल्ली वीणा बजा रही है क्यों अभी
तूर्यनाद भी शिखिगण कैसे कर रहे
दौड़-दौड़कर सुमन-सरभि लेता हुआ
पवन स्पर्श करना किसको है चाहता
तरूण तमाल लिपटकर अपने पत्र में
किसका प्रेम जताता है आनन्द से
रह-रहकर चातक पुकारता है किसे-
मुक्त कंठ से, किसे बुलाता है कहो
रहो-रहो वह झगड़ा निबटेगा तभी
छिपी हुई जब ज्योति प्रकट हो जायगी
हाँ, हाँ नीरद-वृन्द, और तम चाहिये
कोई परदा वाला है यह आ रहा
परदा खोलेगा जो एक नया यहीं-
जगत-रंगशाला में। मंगल-पाठ हो
द्विजकुल-चातक और जरा ललकार दो-
‘अरे बालको इस सोये संसार के
जाग पड़ो, जो अपनी लीला-खेल में
तुम्हें बतावेंगे उस गुप्त रहस्य को-
जिसका सोकर स्वप्न देखते हो अभी
मानव-जाति बनेगी गोधन, और जो
बनकर गोपाल घुमावेंगे उन्हें-
वहीं कृष्ण हैं आते इस संसार में
परमोज्जवल कर देंगे अपनी कान्ति से
अन्धकारमय भव को। परमानन्दमय
कार्म-मार्ग दिखलावेंगे सब जीव को
यमुने ! अपना क्षीण प्रवाह बढ़ा रखो
और वेग से बहो, कि चरण पवित्र से
संगम होकर नील कमल खिल जायगा
ब्रजकानन ! सब हरे रहो। लतिका घनी-
हो-होकर तरूराजी से लिपटी रहें
कृष्णवर्ण के आश्रय होकर स्थित रहें
घन ! घेरो आकाश नीलमणि-रंग से
जितना चाहो, पर अब छिपने की नहीं
नवल ज्योति वह, प्रकटित होगी जो अभी
भव-बन्धन से खुलो किवाड़ो ! शीघ्र ही
परम प्रबल आगमन रोक सकती नहीं
यह श्रृंखला, तुम्हारे में हैजो लगी
दिव्य, आलौकिक हर्ष और आलोक का-
स्वच्छ स्त्रोत खर वेग सहित बहता रहे
खल दृग जिसको देख न सकें, न सह सकें
जलद-जाल-सा शीतलकारी जगत् को
विद्युद्वृन्द समान तेजमय ज्योति वह
प्रकट गई। पपिहा-पुकार-सा मधुर औ’-
मनमोहन आनन्द विश्व में छा गया
बरस पड़े नव नीरद मोती औ’ जुही