श्रीकृष्ण व नरसी मेहता / नज़ीर अकबराबादी
दुनियां के शहरों में मियां, जिस जिस जगह बाज़ार हैं।
किस किस तरह के हैं हुनर, किस किस तरह के कार हैं॥
कितने इसी बाज़ार में, ज़र के ही पेशेवार हैं।
बैठें हैं कर कर कोठियां, ज़र के लगे अम्बार हैं॥
सब लोग कहते हैं उन्हें, यह सेठ साहूकार हैं॥1॥
हैं फ़र्श कोठी में बिछे, तकिये लगे हैं ज़रफ़िशां<ref>सुनहरी</ref>।
बहियां खुलीं हैं सामने लिखते हैं लक्खी कारवां॥
कुछ पीठ की कुछ पर्त की, आती हैं बातें दरमियां।
लाखों की लिखते दर्शनी, सौ सैकड़ों की हुंडियां॥
क्या क्या मिती और सूद की, करते सदा तक़रार<ref>विवाद</ref> हैं॥2॥
कुछ मोल मज़कूर<ref>वर्णन</ref> है, कुछ ब्याज का है ठक ठका।
फैलावटें घर बीच की बीजक का चर्चा हो रहा॥
दल्लाल हुंडी पीठ के बाम्हन परखिये सुध सिवा।
आढ़त बिठाते हर जगह, चिट्ठी लिखाते जा बजा॥
कुछ रखने वाले के पते, कुछ जोग के इक़रार हैं॥3॥
थोड़ी सी पूंजी जिनके है, बैठे हैं वह भी मिलके यां।
ईधर टके दस बीस के, ऊधर धरी हैं कौड़ियां॥
और जो हैं हद टुट पूंजिये वह कौड़ियों की थैलियां।
कांधों पै रख जाते हैं वां, लगती जहां हैं गुदड़ियां॥
देखा तो यह सब पेट के, धन्धें हैं और बिस्तार हैं॥4॥
है यह जो सर्राफ़ा मियां, हैं इनमें कितने और भी।
हित के परेखे का दरब, चाहत की चोखी अशरफ़ी॥
जो ज्ञानी ध्यानी हैं बड़े, कहते उन्हीं को सेठ जी।
धन ध्यान के कुछ ढेर हैं, कोठी भी है कोठी बड़ी॥
मन के प्रेम और प्रीत का करते सदा व्योपार हैं॥5॥
हैं रूप दर्शन आस के, चित के रूपे मन में भरे।
हुंडी लिखें उस साह को, जाते ही जो पल में मिले॥
लेखन से लेखा चाह का, चित की सूरत में लिख रहे।
जिस लोक में है मन लगा, उस बास की बंसनी बजे॥
नित प्रेम की हों बीच में, बहियां धरीं दो चार हैं॥6॥
बीजक लगाते हैं जहां, धोका नहीं पज़ता ज़रा।
जिस बात की मद्दें लिखें, वह ठीक पड़ती हैं सदा॥
है जमा दिल हर बात से, मन अस्ल मतलब से लगा।
हाजत<ref>आवश्यकता</ref> तक़ाजे<ref>बार-बार कहना</ref> की नहीं, लेना सब आता है चला॥
जो बात करने जोग हैं, उसमें बड़े हुशियार हैं॥7॥
रहते हैं खु़श जी में सदा, दिल गीर कुछ रहते नहीं।
व्योपार करते हैं बड़े, हर आन रहते हैं वहीं॥
झगड़ा नहीं करते ज़रा, गुस्सा नहीं होते कहीं।
मत की सुनी से मन लगा, सुख चैन है जी के तईं॥
खोटे मिलत से काम क्या, उनके खरे हितकार हैं॥8॥
करते हैं नित उस काम को, जो है समाया ज्ञान में।
जो ध्यान है मन में बंधा, रहते हैं खुश उस ध्यान में॥
सन्देह का पैसा टका, रखते नहीं दूकान में।
नित मन की सुमरन साध कर, हर वक़्त में हर आन में॥
जिस नार का आधार है, उससे लगाये नार हैं॥9॥
जिस मन हरन महबूब से, मन की लगाई चाह है।
सब लेन की और देन की, उनको उसी से राह है॥
जो दिल की लेखन से लिखा, उससे वही आगाह है।
उनको उसी से साख है, उनकी वही एक राह है॥
कौड़ी से लेकर लाख तक, उनके वही व्योपार हैं॥10॥
इस भेद का ऐ दोस्तों, इस बात में देखो पता।
थे नरसी महता एक जो, सर्राफ़ी करते थे सदा॥
महफू़ज<ref>सुरक्षित</ref> थे खु़श हाल थे, दूकान में ज़र था भरा।
श्री कृष्ण जी के ध्यान में, रहता था उनका मन लगा॥
सुन लो यह उनकी प्रीत और परतीत के अबकार हैं॥11॥
जूं जूं बढ़ा हिरदै में मत, मधु प्रेम का प्याला पिया।
पैसा टका जो पास था, सब साधु सन्तों को दिया॥
सब कुछ तजा हरि ध्यान में, और नाम हरि का ले लिया।
नित दास मतवाले बने, हरि का भजन हरदम किया॥
परघट किये सब देह पर जो नेह के आसार हैं॥12॥
सब तज दिया हरि ध्यान में, यह पीत का ठहरा जतन।
करते भजन श्रीकृष्ण का, हर हाल में रहते मगन॥
नरसी की परसी हो गई, देकर मदनमोहन को मन।
चाहत में सांवल साह की, अपना भुलाया तन बदन॥
सब भगत बातें साथ लीं, जो इष्ट में दरकार हैं॥13॥
दिन रात की माला फिरी श्रीकृष्ण जी श्रीकृष्ण जी।
ठहरा जु़बां पर हर घड़ी, श्रीकृष्ण जी, श्रीकृष्ण जी॥
कहता सदा सीने में जी, श्रीकृष्ण जी, श्रीकृष्ण जी।
जाते जहां कहते यही, श्रीकृष्ण जी, श्रीकृष्ण जी॥
जो प्रेम के पूरे हुए, उनके यही अतवार हैं॥14॥
कहते हैं यू एक देस में, रहते जो कितने साधु थे।
वह दर्शनों के वास्ते जब द्वारिका जी को चले॥
आ पहुंचे उस गारी में जब, नरसी जहां थे हित भरे।
उतरे खु़शी से आन कर, और वां कई दिन तक रहे॥
पूजा भजन करने लगे, साधुओं के जो अतवार हैं॥15॥
वह साधु जो उतरे थे वां, कुछ थे रूपे उनके कने।
चाहा उन्होंने दर्शनी, हुंडी लिखा लें सेठ से॥
लेवें रुपे हुंडी दिखा, जब द्वारिका में पहुंच के।
कारज संवारें धरम के, जो नेक नामी वां मिले॥
करते हैं कारज प्रेम के, जाके जो उस दरबार हैं॥16॥
लोगों से जब इस बात का, साधुओं ने वां चर्चा किया।
और हर किसी के उस घड़ी, घर पूछा साहूकार का॥
उस छोटी नगरी में बड़ा, नरसी का यह व्योपार था।
श्रीकृष्ण जी की चाह में बैठे थे सब अपना गवां॥
मुफ़्लिस<ref>ग़रीब</ref> से कब वह काम हों, करते जो अब ज़रदार<ref>धनवान</ref> हैं॥17॥
कितने जो ठट्ठे बाज़ थे जिस दम उन्होंने यह सुना।
दिल में हंसी की राह से, साधुओं से यूं जाकर कहा॥
एक नरसी महता है बड़े, सर्राफ़ यां के वाह! वा।
तुम दर्शनी हुंडी जो है, लो हाथ से उनके लिखा॥
है साख उनकी यां बड़ी, जितने यह साहूकार हैं॥18॥
वह साधु क्या जानें कि यां, यह करते हैं हमसे हंसी।
लेकर रूपे और पूछने, आये बहुत होकर खु़शी॥
नरसी के आये पास जब, यह दिल की बात अपने कही।
लिख दो हमें किरपा से तुम, इस वक़्त हुंडी दर्शनी॥
हम द्वारिका को आजकल जल्दी से चलने हार हैं॥19॥
नरसी ने यूं सुनकर कहा, मैं तो ग़रीब अदना हूं जी।
साधू मेरी दूकान तो मुद्दत से है ख़ाली पड़ी॥
ने है मेरी आड़त कहीं, ने मीत मेरा है कोई।
ने पास मेरे लेखनी, ने एक टूटी सी बही॥
यह बात वां कहिये जहां, नित हुंडियां हर बार हैं॥20॥
जाकर लिखाओ और से, परतीत साधू क्या मेरी।
है मेरे पड़ रहने को यां, टूटी सी अब एक झोपड़ी॥
तन पर मेरे कपड़ा नहीं, ने घर में थाली, करछली।
मैं तो सिड़ी, ख़व्ती सा हूं, क्या साख मेरी बात की॥
सब नाम रखते हैं, मुझे जो मेरे नातेदार हैं॥21॥
यह बात सुनकर साधु वां, नसी से बोले उस घड़ी।
लिख दो हमें किरपा से तुम, हमको यह हुंडी दर्शनी॥
कर याद सांवल साह की, नरसी ने वां हुंडी लिखी।
साधुओं ने हुंडी लेके वां से द्वारिका की राह ली॥
कहते चले लेने रुपै, अब वां तो बेतकरार<ref>निर्विवाद</ref> हैं॥22॥
लोगों ने जाना अब बहुत, नरसी की ख़्वारी<ref>अपमान</ref> होवेगी।
लिख दी उन्होंने अब ज़ो यां, काहे को यह हुंडी पटी॥
यह द्वारिका से साधु यां, आवेंगे फिर कर जिस घड़ी।
पकड़ेंगे उनको आनकर, लोगों में होवेगी हंसी॥
खोये हैं पति इन्सान की, झूठे जो कारोबार हैं॥23॥
नरसी ने वह लेकर रुपै, रख ध्यान हरि की आस का।
थे जितने साधु और संत वां, सबको लिया उस दम बुला॥
पूरी कचौरी और दही, शक्कर, मिठाई भी मंगा।
सबको खिलाया कितने दिन, और सब ग़रीबों से कहा॥
मन मानता खाओ पियो, यह जो लगे अंबार हैं॥24॥
बर्फ़ी, जलेबी और लड्डू, सबको वहां बरता दिये।
जब सोच आया मन में यूं, होता है क्या अब देखिये॥
वह साधु हंुडी दर्शनी, ले द्वारका में जब गये।
कोठी को सांवल साह की, वां ढूंढते हर जा फिरे॥
हम जिनको हैं यां ढूंढते, यां वह नहीं ज़िनहार हैं॥25॥
बे आस होकर जिस घड़ी, वह साधु बैठे सर झुका।
इतने में देखा दूर से, एक रथ है वां जाता चला॥
कलसी झमकती जगमगा, छतरी सुनहरी ख़ुशनुमा<ref>सुन्दर</ref>।
एक शख़्स<ref>व्यक्ति</ref> बैठा उसमें हे, सांवल बरन मोहन अदा॥
रथ की झलक से उसकी वां, रौशन अजब अनवार<ref>तेज, प्रकाश</ref> है॥26॥
वह साधु देख उस ठाठ को, कुछ मन में घबरा से गये।
जल्दी उठे और सामने, रथ के हुए आकर खड़े॥
पूछा उन्होंने कौन हो, तब साधु यूं कहने लगे।
नरसी की हुंडी दर्शनी, है जोग सांवल साह के॥
सी हमको वह मिलते नहीं, अब हम बहुत नाचार हैं॥27॥
यह कहके हुंडी दर्शनी, जिस दम उन्होंने दी दिखा।
श्रीकृष्ण जी ने प्यार से, हर हर्फ़<ref>अक्षर</ref> हुंडी का पढ़ा॥
जितने रुपै थे वां लिखे, वह सब दिये उनको दिला।
वह ख़ुश हुए जब कृष्ण ने, यूं हंस के साधुओं से कहा॥
यह अब जिन्होंने है लिखी, हम उनसे रखते प्यार हैं॥28॥
अब जो मिलोगे उनसे तुम, कहियो हमारी ओर से।
जो थे रुपै तुमने लिखे, वह हमने सब उनको दिये॥
यह काम क्या तुमने किया, थोड़े रुपै जो अब लिखे।
आगे को अब समझो यही, इतने रुपै क्या चीज़ थे॥
लाखों लिखोगे तुम अगर, देने को हम तैयार हैं॥29॥
वह साधु अपने ले रुपे, फिर शहर के भीतर गए।
कारज जो करने थे उन्हें, मन मानते वह सब किये॥
फिर द्वारिका से चलके वह, नरसी की नगरी में गये।
नरसी से लोगों ने कहा, नरसी बहुत दिल में डरे॥
दूंगा कहां से मैं रुपे, यह तो बिपत के भार हैं॥30॥
जब साधु मिलने को गये, नरसी वहीं छुपने लगे।
वह मिनतियां करने लगे, और पांव नरसी के छुए॥
परशाद लाये और रुपे, कुछ रूबरू उनके धरे।
और जो सन्देसा था दिया, सब वह बचन उनसे कहे॥
नरसी ने जाना कृष्ण की किरपा के यह असरार<ref>भेद, रहस्य</ref> हैं॥31॥
मन में जो नरसी खु़श हुए, सब साधु यूं कहने लगे।
सब हमने भर पाये रुपे, और हरि के दर्शन भी किये॥
हुंडी बड़ी लिखते रहो, हरि ने कहा है आप से।
नरसी यह बोले उनसे वां, अब किससे हो किरपा सके॥
जो जो कहा सब ठीक है, वह तो महा औतार हैं॥32॥
नरसी की सांवल साह ने जब इस तरह की पत रखी।
और यूं कहा आगे को तुम, लिखते रहो हुंडी बड़ी॥
बलिहारी नरसी हो गए, श्रीकृष्ण ने कृपा यह की।
जिसको ”नज़ीर“ ऐसों की है, जी जान से चाहत लगी॥
वह सब तरह हर हाल में, उसके निबाहन हार हैं॥33॥