श्रीमती क ख ग की मौत / रेखा चमोली
वो
सारी उम्र समझता रहा उसे
आज्ञाकारी दासी
वो समझता रहा
बहुत डरती है वो उससे
उसके इशारे पर नाचती है
रोकने पर रुकती, चलाने पर चलती
उतना और वैसा ही कहती
जितना और जैसा वो सुनना चाहता
उसके डपटने से सिमट जाती वो घोंघे-सी
मारने-पीटने पर सिल लेती अपने होंठ
ख़ुद ही उधेड़ लेती सारी सिलाई तन और मन की
उसके बताए और ना बताए सारे काम
बिना ऊब व थकान के कुशलतापूर्वक करती
उसके निर्णय बिना किसी प्रतिप्रश्न के उसे स्वीकार होते
जब वो कहता
तेज़ हवा चल रही है
वो बन्द कर देती सारे घर के खिड़की-दरवाज़े
वो कहता- बसन्त आ गया
वो मुस्कुराती डोलती दिन-भर सारे घर में
आज जब उसने
मुक्त कर लिया है ख़ुद को
सारे सांसारिक-बंधनों
व उससे
समझ आया है उसे कि
जब वह अपने भीतर समेट लेती थी सारी धरती
आसमान मुँह ताकता रह जाता था
उन स्थितियों में भी जब
पर्वत भीगने लगते थे और हवाएँ
हो जाती थीं भारी
रुँधे गले से भीगे शब्द अटक-अटककर निकलते थे
वो तब भी गा सकती थी
ख़ुशियों और आशाओं भरा सबसे सुरीला गीत
वो अब जान पाया है
वो सारी उम्र करती रही
दया
उसकी कमज़ोरियों पर
उसकी कुंठाओं पर
मानसिक विकृतियों पर
वो उम्र-भर उसे
उसके झूठे दंभों, स्वाभिमानों, अभिमानों के साथ
स्वीकार करती रही
वो उम्र-भर उसकी दया पर पलता आया
वो एक शानदार पारी खेल कर गई
उसे छोड़ गई अकेला
उसके ही पिंजरे में ।