श्री गुरु-गोपाल वन्दना / यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'
परम दयालु दीनबन्धु ह्वै कृपालु प्रभु,
दीजै वर एक, रमों भक्तवर बृंदों में।
'प्रीतम' प्रवीन चुनि भावना प्रसून अब,
नित सुचि माल गुहों नव गुन छंदों में।
फन्द भव काट, द्वन्द-हाट सों निराट रहों,
ठाट-बाट हू सों रहों पूरन अनन्दों में।
सेवों श्री विट्ठलेश गुरु की चरण रज,
सरन प्रतिपाल गोपाल पद बन्दों मैं।।
कब लों रहों मैं दीन, दीनबन्धु तेरौ बनि,
बसिबौ न चाहों यों फरेब फर फन्दों में।
बिलम न कीजै, भरि दीजै, भौन कौंन सबै,
वैभव बिसुद्ध कर बरस अनन्दों में।
'प्रीतम' सुकवि छवि छटा त्यों निहारें रहों,
बारें रहों भाव-पुष्प गुहि गुन छंदों में।
सेवों श्री विट्ठलेश गुरु की चरण रज,
सरन प्रतिपाल गोपाल पद बन्दों मैं।।
धारै है जो मोर पच्छ कोर है कटाच्छ रच्छ,
यै ही है प्रतच्छ लच्छ बिचरों स्वच्छंदों में।
दृन है बिस्वास आस पूरौगे अबस अब,
होंउ ना निरास नाहिं फँसों त्रास द्वंदों में।
'प्रीतम' प्रवर वर वैभव बिपुल पाइ,
सुजस प्रवाह बढ़ै रसमयी छंदों में।
सेवों श्री विट्ठलेश गुरु की चरण रज,
सरन प्रतिपाल गोपाल पद बन्दों मैं।।