सोभित सलौने सुभ्र सरस सुधा सों सने,
सील सिंधु रूप लसें जिन सम चन्द ना।
कैधों रवि प्रभा पुंज कुंज सेज लोभें मंजु,
हिय लौ प्रकासें भासें राखें मति मन्द ना।
जप तप जोग जाग जुरि कें समाने किधौं,
जिन्हें हेर-हेर अघ करत हैं क्रन्दना।
'प्रीतम' अनन्द नाम श्री गुरु श्री 'विट्ठलेश',
रटों नि सियाम करौं पद नख वन्दना।।
कीनी जो कृपा है ताहि कोविद बखानें कौन,
होत हिय द्रब सब भाँति ते अनन्दों मैं।
जनम सुधारौ उर भरम निकारौ सुभ,
कर्म निरधारौ जाते भ्रमों नाँहि द्वंदों में।
'प्रीतम' सु सिच्छा पाइ परम प्रबीन बन्यौ,
सन्यों गुन गौरब तें गन्योंबिग्य बृन्दों में।
छंदों में निखार प्यार-सार जिय जानि त्यों,
श्री वर गुरु पाद पद्म बार-बार बन्दों मैं।।