भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

श्री यमुना वन्दना / यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बन्दों श्री पद पद्म बंधु तनया, स्यामा प्रिया स्याम की।
कालिन्दी कल कूल केलि सलिला, धारा धरा धाम की।
पूर्णानन्द करी सदैव सुभगा, सारा सभी काम की।
प्यारी 'प्रीतम' प्रान पुन्य फलदा, सोभा सु विश्राम की।।



जम फाँस की त्रास बिनास के बेग सदा तट बास कौ ही बर दै।
कवि 'प्रीतम' पाप पहारन कों निज कूल कछारन में छर दै।
भव बैभव भाग के भौनहि में स्व सुभाउ ते भामते ही भर दै।
जमुने सुख बारिद की झर दै, अरु मो दुख दारिद कों दर दै।।



भाखें जमराज सुनों सेबक हमारे सब
काहू मानुस कों लाइबे कौ धर्म ना है रे

'प्रीतम' कवि जेते या जग माँहि पापी जन
जमना नहाइ तिन्हें रहै भ्रम ना है रे

या ही सों तुम सों बात खोलि कें क़हत आज
मेरी गम ना है तौ तिहारी गम ना है रे


आस जमना है जाके, पास जाम ना है वहाँ
बास जमना है तहाँ त्रास जम ना है रे



निकट बसाइ जनु गोद में बिठाइ मन
मोद में मढ़ाइ लियौ दारिद निकन्दिनी

कियौ है मुकुन्द पद सेबक स्व्छन्द पाइ
मुकुन्द रति वर्द्धिनी अमित अनन्दिनी

चार फल दायिनी प्रदायिनी मनोरथ की
तुम सी तुम्हीं हौ मातु सग जग बन्दिनी

'प्रीतम' सुकवि अघ बृंदन प्रभंजनी जु
बन्दों पद पद्म कालिन्द गिरि नन्दिनी



रोग-हर, ताप-हर, दु:ख-हर, दया-कर
दीन जान, आन मम गेह माँहि रहियै

'प्रीतम' सुकवि वाक-सिद्धि, बुद्धि-सुद्धि हेतु
बैठि रसना पै, देवि! साँच-साँच कहियै

बैभव की बृद्धि होइ, सुख में समृद्धि होइ
दीजै बरदान मोहि जो जो जब चहियै

लाज कौ जहाज आज बूढ़ौ जात जाति मध्य
तासों माँ उबारिबे कौं, बेगि बाँह गहियै
[कवि के जीवन में एक विशेष घटना पर उद्भूत छन्द]



जमना जब नाम कढै मुख ते, सुनते तब पास रहै जम ना
जम नाम न राखत खातेन में, जिनके जिय आन बसी जमना
जमना के प्रसाद भए कवि 'प्रीतम' गावत त्यों तब ते जु मना
भज रे जमना, जप रे जमना, जित है जमना, तित है जम ना



अब जो जनमों तो बसौं जमना तट, औ तनु मानुस कौ ही जु धारौं
कवि 'प्रीतम' जू रसना सों सदा, रस नाम गुपालहि कौ सु उचारौं
निरधारौं यही मन में इक आस प्रभो, ह्वै निरास न ताहि बिसारौं
जिति केलि कला तुम कीन्हीं, वही ब्रज के बन-बाग-तड़ाग निहारौं



हौं तो हौं जु टेरौ चेरौ, तेरौ ह्वै बन्यौ ही रहौं
या ही आन-बान कौं सु धारियै श्री यमुने

पातक अनेक एक आसरौ तिहारौ बड़ौ
अडौ खडौ द्वार पै निबारियै श्री यमुने

'प्रीतम' मनोरथन पूरन करन बेगि
ध्यान के धरत ही पधारियै श्री यमुने

राज औ समाज के सु काज हित आज मेरे
लाज के जहाज कौं सँभारियै श्री यमुने



जुगन विताने सब जतन सिराने तब
भागीरथ ठाने ब्रत माने सुख मन्द ना

ब्रह्म जब लाने केस संकर सुहाने पुनि
धरा पै गिराने हेतु राखे कछु फन्द ना


पूर्वज तराने सुनि देव हरसाने पुन्य-
पुंज सरसाने भए, अघ्घर अनन्द ना

'प्रीतम' वौ कविन्द ना सु छन्दना अमंद ना
जो न नर गावत गौरि गंगा की वन्दना
अघ-घर = अघ्घर