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श्री राधामाधव / छन्द 1-10 / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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गोपिन के मन-प्रान बसे मन मोहन लोक ललाम की जै।
नन्द जसोदा के नन्दन की उर मन्दिर में बसे श्याम की जै।
कोटि मनोज लजात जिन्है लखि माधव की छवि धाम की जै।
राधिकारानी के प्रीतम जू सुखधाम अनन्त अकाम की जै।1।


हाथ लिये मुरली मुरलीधर! मोहक रूपु धरौ उर अन्तर।
पावन आइ करौ कविता, गुनगान भरौ हरि आखर आखर।
ज्ञानी हौ, ज्ञान हौ, ज्ञान निधान हौ, ज्ञान स्वरूप बसौ रसना पर।
पान करै रसना रस नाम कौ सोई करौ अब हे नटनागर!।2।

प्रानन की बिसरी सुधि नेकु जो कानन तै मुरली धुनि छ्वै गयी।
आखिन मैं अँसुआ निकसे विकसे जनु मोतिन की लर च्वै गयी।
प्रेम पगे से ठगे से दुऔ मन प्रानन की गति एकहि ह्वै गयी।
राधिका के उर में बसे माधव माधव के उर राधिका ह्वै गयी।3।

धन्य भयो बसि गोकुल गो-कुल गूँजि रहे जहाँ बाँसुरी के सुर।
नैनन में बसी साँवरी सूरति मूरति मंजु बसी उर के पुर।
श्यामहि श्याम की बाजति झाँझर मोहन मोहन गावति नूपुर।
माधव माधव गूँजति प्रानन राधिका राधिका टेरि रह्यो उर।4।

पाँइ परे मुरलीधर के ब्रज की रज चन्दन चन्दन ह्वै गयी।
गंग समान सुवन्दित ह्वै जग जाल विसाल कौ गंजन ह्वै गयी।
भक्तन के चढी़ सीस मनोहर भक्ति सहोदरा पावन ह्वै गयी।
ह्वै गयी मानस रोग नसावनी मुक्ति कौ पावन स्यन्दन ह्वै गयी।5।
मूक भई रसना बस-ना कछु और सुहाइ न बावरे नैनन।
माधव नाम जपे बिनु मोकहुँ जीवन हीन लगै यहु जीवन।
माधुरी जौ बिखरै छवि की हिय मैं तौ उजास भरै मन-प्रानन।
नाचि उठै रसना पर मोहन! मोहन-मोहन-मोहन-मोहन।6।

छूटि गयो छल छन्द जबैं हिय तैं मन मोहन की सुधि ह्वै गई।
एकहि बार कह्यो मन मोहन मोह-न मोह रह्यो मति ध्वै गई।
एक घरी बसे नैनन मैं हरि प्रानन लौं रस माधुरी च्वै गई।
मोहन कौ मिल्यो संग अपूरब ग्वालिन राधिका राधिका ह्वै गई।7।

केशव केशन माँहि लसैं बसै कानन कान्ह सदा सुखदाई।
भाल पै राजै सुराधिका-वल्लभ भौंह मैं कृष्ण रहैं मुसकाई।
मोहन बास करैं दृग मैं घनश्याम रहैं पुतरीन मैं आई।
माधव राजैं कपोलन माँहि विराजैं सदा अधरान कन्हाई।8।

आरत टेर सुनी गजराज की धाइ तुरन्त उबारि लियों प्रभु!
भीर परी प्रहलाद पै खम्भ बिदारि सुरारि सँहारि दियो प्रभु!
माखन लूटि के खाइ खिलाइ के ग्वा लन सौं बहु प्रेम कियों प्रभु!
मोहन मोहन आजु पुकारति आरति पारति मेरो हियो प्रभु!।9।

दास उदास बन्यो मरुभूमि सो दूरि लौ छाँह न देत दिखाई।
जीवन जीवन हीन भयो केहि भाँति कहौं अपनी लघुताई।
भीतर बाहर घोर अँधेरो न देत है लच्छ अलच्छ सुझाई।
हौं त्रयतात ग्रस्यों नरनाथ!अनाथ हौं कीजियै बेगि सहाई।10।