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श्री राधामाधव / छन्द 51-60 / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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कान परी जब ते मृदु बाँसरी गूजँति है नित भीतर-बाहर।
भूलि गयीं अँखियाँ लखिबो मन मोहन छाड़ि कछू धरनी पर।
जोग अजोग है लागि रह्यो मोहि काह कहौं कहा बीतति मो पर।
औरु को ध्यान मैं काह करौं जबइ बस्यो हिय मैं मुरलीधर।51।

नित प्रेम सुधा छकि पान करैं कबहूँ दृग मेरे छकैं न छकाये।
हरसैं हुलसैं छवि कौं निरखैं मन मोद भरैं सुख सिन्धु जगाये।
छवि श्याम की साँवरी-सी लखि कै मन-प्रानन माँहि सुधाकर छाये।
सकुचाति खडी़ रसना केहि भाँति बखानहि आनन्द कौ छलकाये?।52।

जाइ कहाँ तुम बैठि गये , नहि टेर सुनी जग के उपजैया।
घोर प्रदूषण कालिया है विष घोरति काह कहौं अब भैया?
आँखिन ढारति है अँसुआ नित टेरति है तुम्हैं भानुजा मैया।
काहे न धावति आवत हौ अब प्रानन पै परी भीर कन्हैया!।53।

ज्ञान सुधापट दिव्य भर्’यो जन-कानन मैं ढरकावति गीता।
धर्म सरूप बखानति पावन सत्य को पंथ दिखावति गीता।
संस्कृति सभ्यता संयम शान्ति को मंजुल पाठ पढावति गीता।
गीता मैं अच्छर मोहन राजति मोहन माँहि विराजति गीता।।54।

कर्म की ज्योति जगाइ के मोहन मोह कौ मोह विशेष हर्’यो है।
ज्ञान कौ, ध्यान कौ, जोग कौ, भक्ति कौ सोधिके वर्न सुवर्न कर्’यो है।
आखर-आखर मैं हरि ने सद्ज्ञान कौ पावन सार भर्’यो है।
मुक्ति सुधाघट गीता कि माधव ज्ञान कौ दिव्य सरूप धर्’यो है।।55।

गोमुख सौ बनी गीता मनोहर ज्ञान की गंग अपार बहै जनु।
मोहन गीता मैं भेद रह्यो नहि एक सरूप अनेक लहै जनु।
एकहि रूप बस्यो सचराचर आखर अर्थ अभिन्न रहै जनु।
गीता न बाँचि रह्यो मन मोहन गीता सौं आपनो भेद कहैं जनु।।56।

मोह बिदारति पंथ सुझावति ज्ञान की ज्योति जगावति गीता।
दूरि करै खटका तुरतै हिय मैं हरि लाइ बसावति गीता।
तत्व महत्व बखानति पावन लक्ष्य महान बनावति गीता।
माधव एकहि बार कह्यो नित माधव माधव गावति गीता।।57।

नेकहु ज्ञान न जानि सक्यों हरिरेम कौ वारि बढ़्यो कबहूँना।
संयम सीलि विनम्र बन्यों नहि साधन धाम गढ्यों कबहूँना।
नाम लियौं नहि माधव, माधव- भक्ति के अद्रि चढ्यों कबहूँना।
कैसे तरौं भवसिन्धु पर्यों लखि गीता सो ग्रन्थ पढ्यों कबहूँना।58।

मोर किरीट लस्यो जेहि भाल पै सो हमरो चिर प्रीतम होई।
आसरो एक तिहारो ही मोहन। सूझत बिस्ब मैं औरु न कोई।
नामहि एक उदार अधार है छाँड़ि गहौं भरोस न कोई।
श्याम जपौ, मन श्याम जपौ, मन श्याम जपौ मन श्याम मै होई।59।

गोरस मैं रस प्रेम भर्’यो तुम गोपिन की बदि नाच-नचैया।
माखन खाइ कै भक्ति दई निज धन्य करे सब गोप औ गैया।
पातक नाथि सनाथ करौ बह्यौ जात है जीवन नागनथैया।
रास रचौ हिय मैं तनि आइकैं ओजमुना तट रास-रचैया!।60।