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श्री राधामाधव / छन्द 91-105 / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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सार भर्’यो सब वेदन कौ गुरू ज्ञान कौ दिव्य पराग भर्’यो है।
प्रेम अगाध भर्यो सुर मैं अनुराग भर्यो है विराग भर्’यो है।
ध्यान अखण्ड कौ जोग भर्यो हरि मुक्ति कौ तीर्थ प्रयाग भर्’यो है।
भक्ति भर्यो पद पंकज कै मुरली मैं सुधारस राग भर्’यो है।91

ढूँढि कदम्ब कै कुन्जन मैं अखियाँ दुखियाँ पथराइ गईं हैं।
माधव-माधव टेरति-टेरति जीभ थकी कुम्हिलाइ गई है।
छाड़ि गईं सगरी सखियाँ अब नाम की टेक लगाइ लई है।
प्रीतम जू! तुम आये न आजु लौं गौन की बेला ही आइ गई है।92।

अधमाधम मोहि समान कहाँ जेहि देखति लोक सदा दुरियावै।
मन मैं मन मोहन छाये विकार है पावन भाव कछू नहि आवै।
जगे भीतर-बाहर दोष सबै रह्यो मूढ़ हौं कौनु भला दुलरावै?
अब तौ हरि! आइ गहौ बहियाँ जग-जाल मैं काल-कराल सतावै। 93।

जान्यों नही कविताई को भेद न छन्दन कौ रचिबो कछु जान्यों।
जान्यों न भाषा न भूषन कौ कछू भाव-कुभाव नही पहिचान्यों।
हीन सबै गुन सौ हौं परो तबहूँ हरि औगुन कौ गुन मान्यों।
आखर आखर आइ बसे हरि छन्दन-छन्दन ब्रह्म समान्यो।94।

मोहन की मुरली मन मोहक मोहि लियो तिरलोक बजाई।
बाँसुरी मैं सुर राजत नाहि बिराजत माधव की मधुराई ।
नारद शेष विशेष जपैं सनकादिक ध्यान धरैं मनलाई।
नाथ! अनाथन के तुम नाथ हौ बाँह गहौ मुरलीधर आई।95।

आनि जड़ो मन मोहन मानिक, मानिक मोह जड़ाए जड़ै नहि।
प्रेम कौ रंग चढ़यो जबते, तब ते रंग औरु चढ़ाए चढ़ै नहि।
चाहु बढ़ो चित मै चित चोर को औरु कौ चाहु बढ़ाए बढै़ नहि।
आइ पर्’यो हिय मैं जब ते कनुआ कर काढ़े कढ़ाए कढ़ै नहि।96।

एकहि राह तकै न थकै गुन आखिन कौ नमकीन भयो है।
दूरि गयी रस माधुरी चन्द की आनन छीन मलीन भयो है।
कान गयै जब ते ब्रज ते सखि जीवनु जीवन हीन भयो है।
लीन भयो ब्रज आसुन मै जब ते मथुरा रसलीन भयो है।।97।।

दारिद दम्भ परे तरसै झरसै हरसै न सुधा परसै।
पाँव परै भवरोग जरै उजरै त्रयताप न वै सरसै।
भीजि रहे मन प्रान सबै उर अन्तर अन्तर मै हरसै।
श्याम सनेह कौ मारग है निसि वासर प्रेम जहाँ बरसै।।98।।

तारक सूने परे नभ पै मनौ चन्द गयौ उजियारो गयो।
राख्यौ सदा निज मानस मै कुम्हिलानो न रंच उपारो गयो।
कोटिन कोटि उपायन ते विरहाम्बुज थारो सवारो गयो।
श्याम गयो बृज ते न सखीबृज की मनौ आँखि को तारो गयो।।99।।

दृग मौन भये सब भूलि सखी! न झपै उझपै वृतधारी भये।
ठग ठाकुर प्रेम मै नेम गयो सुख चैन गयो अविकारी भये।
मुसक्यानि गयी बतरानि गयी लुटे प्रेम के पंथ भिखारी भये।
बिगरे चुरियान के साज सबै असुआन मै भीजि कै भारी भये।।100।।

पीर की भीर भई हिय मैं , चित चाह के छन्द भये अँसुआ |
मन्द भये नहि भाव जगे पगे प्रेम अमन्द भये अँसुआ |
प्रेम के भार भरे भरे डोलहि मत्तगयन्द भये अँसुआ |
मूरति मंजु बसी दृगकंज , पखारि अनन्द भये अँसुआ।।101।।

जोग वियोग मै बूड़ि गयो सखि! रोग अमोघ भयो बनवारी |
बाढ़ै दिनादिन प्रेम कौ रंग, उमंग तरंगन कै बढ़वारी |
बावरी बावरी हवै गयी है मति की गति जाति न नैकु सँवारी |
साँवरे की सुधि काह कहौ सखि! है पलऊ नहि जाति बिसारी।।102।।

मोहि रह्यो जन के मन कौ तुम गीता बखानि रह्यो नित केशव !
वन्दन है ब्रजधाम कौ पावन भक्ति जहाँ नित नाचहि नीरव।
डारन-डारन पातन-पातन गूँजत प्रेम कौ पावन है रव।
राधिका-माधव -राधिका -माधव राधिका-माधव -राधिका -माधव।।103।।

श्यामलताई भरी मसि मैं नव भक्ति कौ भाव हॅस्यो-बिहस्यो है।
माखन-माखन नेह भर्’यो मिसरी-मिसरी करि प्रेम लस्यो है।
आखर-आखर रास रच्यो कविता कौ हियो हुलस्यो-हुलस्यो है।
छन्द हैं मोहन कै मन मोहन मोहन छन्द मैं आनि बस्यो है।।104।।

आस कर्’यो मन मोहन तै कबहूँ नहि आस उदास कर्’यो है।
घोर अँधेरे भरे हिय मैं छवि-ज्योति कौ दिव्य प्रकाश कर्’यो है।
छाड़ि बड़े-बड़े जोगिन कौं रस-प्रेम भर्’यो-मन वास कर्’यो है।
ढारि सुधा निज नाम की श्याम- सवैयन मैं रस-रास कर्’यो है।।105।।