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श्रेष्ठी / विमल राजस्थानी

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मथुरा का श्री-केतु, सुगन्धे का व्यापार अतहुल था
थी न किप्तु, सन्तान, दम्पती का मन खिन्न, विकल था
सार्थवाह थे कई किन्तु, सर्वोच्च वही था उनमें
कुल-दीपक के बिना वहिन्-सुलग रही थी मन में
पीड़ा यह स्वाभाविक भी थी,पंख कुतरने वाली
बिना पुत्र के गृही के जैसे तरू की नंगी डाली
देते थे सांत्वना स्वजन उपदेश साख्या के दे कर
सृष्टि चलेगी कैसे यदि सब ही योगी हो जायें
त्याग गृहस्ती को ऊर्जा के उद्यम में खो जायें
सच है-माया मोह सभी झुठे बधन है जग के
बनते पुत्र-कलत्र नही पाथेय मोक्ष के मग के
एक आष्ैर यह सृष्टि,दूसरी और मुक्ति का पथ हैं
दोनो के ही मध्य सुधी जन रखते अपना पथ हैं
नर-नारी रथ क दो चक्के, सृष्टि तभी चलती है
तिमिर टूटता, पुत्र-पौत्र की ज्योति-शिखा जलती है
भग्याबनाता नही विधता, स्वयम्मनुज गढ़ता है
बाधाओं को चीर, वाण सा लक्ष्य और बढ़ता है
किलकारियाँ न गूँजें अगर गृही के घर-आँगन में
छा जायेगी श्मशान की शांति सफल त्रिभुवन में
ईश्वर का वर्चस्व नहीं तबजल में रह पायेगा
सृष्ंिट-चक्र की सुगति थमेगी, चक्र ब्ूट जायेगा
निश्चि कनयम प्रकृति के, ग्रह समस्त नियमों के वश में
जैसे बँधे परस्पर छंदो के अवयव नव रस में
गृही पुत्र के बिना, नही ग में शोभा पाता है
मिल पाती है नहीं मुक्ति,नर आता है, जाता है
‘‘नहीं नींद रातो को, दिन में भी चैन नहीं है
मुझ-सा भाग्यहीन धरती पर अन्य न कहीं है
मुझ सन्तानहीन से लेते नहीं पितृगण जल हैं
यह ऐश्वर्य, अतोल सम्पदा तृणवत्, व्यर्थ,विफल है
सह नभ छुती सुख-समृद्धि फिर कौन भला भोगेगा
देगा कौन चिताग्नि,पिंड दे, तर्पण कौन करेगा
किये बहुत तप-त्याग, दान-दक्षिणा अपरिमित बाँटी
तीर्थ-तीर्थ भटका, तारे गिन-गिन कर रातें काटीं
किलकारी के बिना आज तक आँगन शून्य पड़ा है
हाहाकार लिए दुर्भग्य सदैव सदेह खड़ा है
मुझ से तो है अधिक दुखी यह गृह शोभा हत भागी
टूक-टूक हो,कोमल हृदय विखर जाता अनुरागी
जब भी कहीं पुत्र-जन्मोत्सव-हर्ष-नाद होता है
तब अबाद गति से आहत मनस कलप-कलप रोता है
झुला पालने पर लड्डूगोपाल, बहूत रोती है
पटक-पटक,सिर-देहरी पर, सुध-बुध खेती है
मंगल अनुष्ठान के पल तो अतुल पीर देते हैं
स्वजन, पराये सभी देख कर दृष्टि फेर लेते हैं
सूनी कोख लिए बन जाती है आँसू की झारी
माँ बनने के हेतु सृष्टि में रची गयी है नारी

करतल से मुँह ढ़ाँप बिसुरे, कैसी परवशता है
आज नही मानूँगा, चरण आँसुओं से धोऊँगा
लूँगा आर्शीवाद, पिता बन कर कृतार्थ होऊँगा
नहीं आज तक भिक्षु श्रेष्ठ से मैने कुछ भी चाहा
भिक्षा देकर नित्य युग्म चरणो को ही अवगाहा
ऋषि यदि चाहें तो मनुष्य के सुदिन लौट आते हैं
आज देखना है-कैसे वे कृपा न बरसाते हैं‘‘