श्वेत स्पंदित स्वप्न / सुरेश चंद्रा
काली पुतलियों पर तिरते
श्वेत स्वप्न स्पंदित होते हैं
चयनशील स्मृति
क्या चख सकेगी ??
अनुराग के अंतस से
सुफेद सुच्चे मोती
या काले पन्नों की दवात
कसैला लिये स्वाद
अतीत के प्राचीर से
प्रत्यक्ष उतरते हैं
आमोद, आलिंगन, अपराध, आपाधापी
अंतहीन अथाह अथक ऊब-चूभ लिये
मैं उतना ही सच्चा प्रस्तुत था उन पलों में
जितनी झूठी मेरी तृष्णा और उनके चयन रहे
चुम्बकीय आसक्तियों पर हस्ताक्षरित पलायन रहे
इन कविताओं में मत ढूँढना
मेरे वादे, दावे, शपथ, सदियाँ
अधिकार और विश्वास खोते हुये
मैं खो चुका हूँ संवेदनायें
मेरा मैं प्रबल है अंतिम श्वास तक, पर
पश्ताचाप, संताप कराह उठता है-
तुम
नील पड़ी नसों, देह के कालेपन पर
मन शनै:शनै: आकृति उकेरता है-
तुम
काली पुतलियों पर तिरते
श्वेत स्वप्न स्पंदित होते हैं.