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षड्यंत्र-रचना / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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बजा लेल चर अनुचर सहचर भट उद्भट कटु हिंसक क्रूर
संगहि किछु विचारकहु मध्यस्थहु जे विदित व्यक्ति अक्रूर
कंस मृत्युभय कंपित, सुरगण वंचित, कुपित चित्त सविशेष
सोचय लागल, आब करी की, वध्य-अवध्य कोना निःशेष
नभ-वाणी छल भेल, तकर नारदहु पुष्टि कयलनि अछि आबि
नंद-यशोदा पूत काल अछि बाल कृष्ण तकरहि अनुभाबि
कहलनि, अहाँ सबहुँ हित-मीत हमर सुख-दुखमे रहलहुँ संग
संकट-विकट निकट अछि सभ मिलि करबे उचित विचार प्रसंग
पहिनहु वध हित कयल उपाय, तकर नहि कोनहु पड़ल प्रभाव
अध वक वत्स पूतना केसी सबहु विफल, करतब की आब
कंसक सुनि प्रस्ताव ताव दय मोछ उपर, क्यौ गरजि उठल
मिलि-जुलि सबहु एकधा व्रज पर वज्र समान चढ़ी दलबल
क्यौ कहलनि, नहि क्षुद्र शत्रु हित अभियानक ई समुचित ढंग
पकड़ि एतहि लय आउ तखन जे उचित दण्ड से करिअ प्रसंग
क्यौ बाजल, रैयत यदि नंदमहर तँ ओकरे पकड़ि मङाउ
बहसल छै बेटा बकटेंटा बापक सगहि ढंग सिखाउ
पुनि बहसा-बहसीमे बहुतो काल क्षपित, नहि हो निर्णय
तखन अमात्य प्रमुख कहलनि किछु सोचि-विचारि विहित नृपनय
राजनीतिमे साम-दामकेर प्रथम प्रयोग दंड पुनि अंत
ततहु साध्य नहि हो रिपु तँ पुनि भेदक ह्वैछ प्रयोग तुरंत
क्षुद्रहु शत्रुक करिअ न हे प्रभु! एना अवज्ञा अविचारी
अनल-कणहुसँ देखल जाइछ दाव-दहन अतिसंहारी
हमर विचार ह्वैछ सामहिसँ नंदमहरकेँ लिअ बजबाय
किछु आदर कय दान-द्रब्य दय दुहु बालककेँ ली अपनाय
खंडन-मंडन चलल कते विध, जत मुख छल तत भिन्न विचार
अपन-अपन दय युक्ति उक्ति विस्तारल सबहु अनेक प्रकार
सुनइत छी जे व्रज रमणी-गण रसिक अधिक ओ श्याम किशोर
तकरा हित विषकन्या लय अनुलेपन करओ स्ववश दृग-कोेर
असरि होयत सहजहिँ रसिया पर, यदि से नहि तँ अग्रिम जोर
अछि अपायकेर कत उपाय से सुनल जाय गनि आङुर पोर
अथवा क्रीडा-रुचिक सुनै छी राम-श्याम दुहु भाइ विशेष
खेल-खेलाड़ी मंच सजाय बजाय लेब उद्घोषि उदेश
धनुर्यज्ञ रचि वीरताक हित प्रतियोगिता रचाय उदार
घोषित करब विजेता ब्रजमंडलक शलाका-युवक प्रचार
आनहु विविध प्रकारक शारीरिक उत्कर्ष प्रदर्शन हेतु
नोतब सबहु किशोर-युवककेँ, भाग लेथु सब क्रीडा-केतु
दौड़-धूपमे कूद-फानमे कुस्तीमे मस्ती देखबैत
वृषभ-तुरंग गयंदहुसँ लड़बामे बल-चुस्ती देखबैत
तरुणदलक क्रीडा-संघर्षक कय आयोजन रजधानी
घोषित करिअ देशमे के छथि युवक-शिरोमणि सेनानी
खेल-खेलमे मारि खसाबय भट-उद्भट किछु तेहन मङाउ
मुष्टिक चाणूरहु सन मल्लक संग दुष्टकेँ ततय लड़ाउ
दाउ-कान्ह दुहु हत हो सहजहिँ, निष्कंटक अहँ राज चलाउ
साप मरय दण्डहु नहि टुटय, एहने कूट नीति अपनाउ
यदि कदाच बचि जाय, पुरस्कृत कय पुनि सहजहिँ ली अपनाय
मान-दानसँ आनहु अपन बनैछ, रहैछ न शेष बलाय
विषहु सुसाधित अमृत रूपमे परिणत करइछ भिषक पिशेष
नीति-रीति थिक साध्य सिद्धिहित साधन कोनहु करिअ विवेश