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षड्यंत्र / अजित सिंह तोमर

चाय पीते वक्त एकदिन
मैने पूछ लिया यूं ही अचानक से
तुम्हारे जीवन की
सबसे बड़ी दुविधा क्या है?
कप को टेबल और लब के मध्य थामकर
एक गहरी सांस भरते हुए कहा उसने
जो मुझे पसन्द करता है
वो बिलकुल भी नही करता तुम्हे पसन्द।


मुद्दत बाद मिलने पर
उसने पूछा मुझसे
किसी को सम्पूर्णता में चाहना क्या सम्भव है?
मैंने कहा शायद नही
हम चाहतें है किसी को
कुछ कुछ हिस्सों में
कुछ कुछ किस्सों में
इस पर मुस्कुराते हुए उसने कहा
अच्छा लगा मुझे
जब शायद कहा तुमनें।


मैंने चिढ़ते हुए कहा एकदिन
यार ! तुम सवाल जवाब बहुत करती हो
प्रश्नों के शोर में
दुबक जाती है हमारे अस्तित्व की
निश्छल अनुभूतियां
बेज़ा बहस में खत्म होती जाती है ऊर्जा
हसंते हुए वो बोली
हाँ बात तो सही है तुम्हारी
मगर इस ऊर्जा को बचाकर करोगे क्या
ढाई शब्द तो ढाई साल में बोल नही पाए
ये उस वक्त तंज था
मगर सच था
जो बन गया बाद में मेरे वजूद का
एक एक शाश्वस्त सच।


एकदिन उसने
फोन किया और कहा
गति और नियति में फर्क बताओं
उस दिन भीड़ में था कहीं
ठीक से सुन नही पाया उसकी आवाज़
जवाब की भूमिका बना ही रहा था कि
हेलो हेलो कहकर कट गया फोन
उसके बाद उसका फोन नही
एसएमएस आया तुरन्त
शुक्रिया ! मिल गया जवाब
ये उसकी त्वरा नही
समय का षड्यंत्र था
जिसने स्वतः प्रेषित किए मेरे वो जवाब
जो मैंने कभी दिए ही नही।