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षष्ठ सर्ग (शपथ ग्रहण) / राष्ट्र-पुरुष / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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हम लेते हैं शपथ रुधिर से, अयश-मैल धोयेंगे
जब तक है तलवार, देश का झंडा नहीं झुकेगा

महालय रायरेश्वर का खुला था
चमक से खंग की उस दिन धुला था

पहाड़ों पर निदाध सुलग रहा था
अनूठा दृश्य सारा लग रहा था

दृगों से अनछुई कलियाँ सजा कर
बिना छूए दिशाओं को बजा कर

प्रतिज्ञा की चिटकती भारती-सी
थिरकती रश्मियों को वारती-सी

सँवरती स्वयं, पंथ सँवारती-सी
उषा थी मुस्कराती आरती-सी

लगा जैसे लहकती साधना हो
लगा, जैसे स्वयं आराधना हो

लगा हो क्रांति की प्रज्वलित रेखा
उषा ने इस तरह उस दिन निरेखा

लगा ऐसा कि भैरव गा रहा है
सिहरते तरु बवंडर आ रहा है
धरा को फोड़ ज्वाला कढ़ रही है
गगन की ओर पल-पल बढ़ रही है

लगा ऐसा कि घाटी है न घाटी
नहाई रक्त से है देश-माटी

नदी की धार पर हैं खंग सजते
जहाँ तक आँच पहुँची खंग बजते

लगा ऐसा कि हर तिनका सिपाही
सलोना वृंत्त पुरइन का सिपाही

लगा ऐसा कि हर पत्ता सिपाही
कँटीले गुल्म अलबत्ता सिपाही

महालय रायरेश्वर का सजीला
सकल तृण-तरु तने, कोई न ढीला

कहीं था तेज छितराया सुमन-सा
कहीं छल-छला छलकता स्नेह-घन-सा

कहीं उत्तुंग शंृगों से उतरता
पहाड़ी रिक्तता में गीत भरता

कहीं था आ रहा निकला शिविर से
कहीं था राह को रँगता रुधिर से

कहीं था स्वयं से अति भिन्न भ्राजी
कि गूँजी घोषणा आये शिवाजी

लगा तूफान पर संकल्प आया
नई उद्भावना का कल्प आया

हिलोरें अनगिनत नद एक ही तो
सहारा एक पावन टेक ही तो

सभी के कान सुनते एक आहट
सभी के हृदय में यह छटपटाहट

किधर से मुक्ति की गंगा उतरती
कहाँ वह रोशनी जो प्राण भरती

इसी औत्सुक्य का परिचय शिवाजी
इसी का चिह्न, स्वर, आशय शिवाजी

पुराने का सुसंशोधन शिवाजी
नवोन्मेषण, समुद्बोधन शिवाजी

मंदिर के भीतर प्रवेश कर
शिवा हुए विह्वल-सा
भक्ति-विभोर हृदय लहराया
निष्ठा की आँखों में

झुके सामने शंकर के
मानों बादल सावन का
आवेगों का कोष खोल
देने के लिये झुका हो

मंत्र-मुग्ध-सा दादाजी नारस
प्रभु निकट खड़े थे
लगता था साकार इरम्मद
खड़ा निकट वासव के

बाहर चुने हुए सैनिक कुछ
ले नंगी तलवारें
करते थे चौकसी सूर्य-जल-
सिक्त शपथ-वेला में

बहुत देर के बाद शिवाजी की
तन्मयता टूटी
मुख-मंडल पर प्रत्यय के
संकल्प-चिह्न अंकित थे

दृप्त दृगों में भाव भरे थे
भाव बड़े निश्छल थे
भावों में प्रेरणा-शक्ति थी
ओतप्रोत हृदय से

स्वर में बोला विंध्य, सतपुड़ा
अरब महासागर भी
बोलीं वरना, भीमा, कृष्णा,
कावेरी की लहरें

”बंधु! सिंहगढ़ पर हमने जो
विजय-ध्वज फहराया
वह तो स्वतन्त्रता-हवनी की
मात्र एक चिनगारी

चिनगारी ही चिटक-चिटक कर
महावज्र बनती है
वही कौंधकर विद्युतज्वाला
कहीं प्रखर बन जाती

लघुता में लघु, अल्प भाग,
पर क्षण ही तो जीवन है
कला, कणिक, क्षुद्र
पर सृजनाधार यही है“

परत परत पर युग पर युग
अभिलेख-बद्ध दिखता जो
वह न अन्यतर, वह, न भिन्न है
पल से और विपल से

क्षण-पल को अस्तित्व यहाँ
कहते हैं नाम बदल कर
एक मधुर अभिधा चिनगारी
मानव के जीवन को

स्फुरण, जागरण-चिंता-चिंतन
चिनगारी, चिनगारी
चिनगारी है मेघा प्रज्ञा
चिनगारी है गति भी

बंधु! सखे! इस चिनगारी को
आओ हम मनुहारें
इसे बंद करलें हम अपनी
धड़कन में, साँसों में

इसे बन्द करलें हम अपने
प्राणों की पँखुरी में
शिल्पित कर दें इसे त्वचा में
अस्थि, रक्त में अपने

आग-धुला यह क्षण है जिसकी
छाया में हम मिलते
आग-धुला यह मग्न मग्न हम
जिसके दर्शन-सुख में

यह उज्ज्वल क्षण रहे न खाली
आओ, इसे सम्हालें
इसके अँचल में प्रण का
वैभव सम्पूर्ण उझल दें

इसे जुगोकर रखें धन्य हम
यह सौभाग्य मिला है
इसे बरौनी से बटोर लें
पलकों में बिठला लें

चिनगारी अंगार बने
अंगार ज्वाल बन जाये
ज्वाल बदल कर महाज्वाल में
दिशा-दिशा को छूले

फैले, फैले, निर्विरोध
अनिरुद्ध अबाधित फैले
इसके संवर्धन की इच्छा
अमर-बेलि-सी-फूले

मति की और मनीषा को
कल्पना और ईहा को
आज वज्र के साँचे में हम
ढालें हर निश्चय को

बुद्धि, तर्क, दोनों की भाषा
फूटे एक हृदय से
हृदय-हृदय का दीप जलाये
बनकर वर्ति हृदय की

करता है मस्तिष्क निरूपित
युग को, उसे उभाड़ें
प्रतिनिधि होता हृदय देश का
आओ उसे हलोरें

लेकर दोनों का अजेय बल
दोनों की ऊर्जा ले
दृढ़ता और पराक्रम ले
दोनों की पवित्रता ले

चलो गाड़ दें शिखर-शिखर पर
हम स्वदेश का झंडा
शंखध्वनि हम करें, घोषणा
करें आत्म-निर्णय को

हम मशल सब ओर जलायें
स्वतन्त्रता की निर्भय
मुक्ति-यज्ञ का होम-कुंड
कण-कण में हम सुलगा दें

बंधु! देश के लिये बहाये
हमने जितने आँसू
चुन-चुन कर सबको शरीर दें
अस्थि और मज्जा दें

सब में रक्त भरें, स्पंदन भी
नया प्रभंजन डालें
हमने जितने स्वप्न गढ़े
सब वह्नि-विशिख बन छूटें

हम स्वदेश के आराधन में
आओ शीश झुका दें
आश्वासन दें और शपथ लें
मुक्ति-दिवस लाने की

हे स्वदेश! हे पिता! पूज्य हे
प्रभा-पुंज! हे प्रियतम!
हे स्वदेश की पावन मिट्टी!
करुणामयि! जगदम्बे!

हे पयस्विनी राष्ट्रभूमि!
हे राष्ट्र-मूर्ति! कल्याणी!
तुम दोनों के लिए प्राण
देने को हम प्रस्तुत हैं

हम लेते हैं शपथ कि जिसने
तुम्हें किया अव-मर्दित
जिसने मनुज-रक्त की प्यासी
पशुता के पैरों से

शील, सभ्यता और हमारी
संस्कृति को रौंदा है
हम उसकी शासन-सत्ता
जड़ से उखाड़ फेकेंगे

हम लेते हैं शपथ, हमारा
हर विचार अपने में
सदा रखेगा तुम्हें सँजो कर
सदा तुम्हें पूजेगा

नाथेगा वह झंझाओं
तूफानों के फणिधर को
बैरी का विष चला अगर
हरने आलोक तुम्हारा

हम लेते हैं शपथ, हमारा
क्रोध पवित्र रहेगा
प्रतिहिंसा से मलिन न होगा
पावन ध्येय हमारा

हम लेते हैं शपथ, हमारे
भाव उठेंगे ऊपर
और बाज-सा झपटेंगे
रिपु पर आक्रमण करेंगे

हम लेते हैं शपथ, न होगी
चिंता हमें मरण की
शीश-दान का पर्व देश के
लिये मनायेंगे हम

हम लेते हैं शपथ रुधिर से
अयश-मैल धोयेंगे
जब तक है तलवार, देश का
झंडा नहीं झुकेगा

बीजापुर बेचैन बहुत है
जगा रहा कुत्सा को
घृणा, द्वेष, गर्हा से कहता
जहर हवा में भर दो

हिंसा से कहता कि दमन की
गति को और बढ़ाओ
क्रूर दंभ से कहता है
कुछ कसो और बंधन को

हम भी कह दें
विच्छिन्न आज सारे प्रमाद हम करते हैं
हम हैं स्वतंत्र, यह सिंहनाद हम करते हैं
हम हैं स्वतंत्र जैसे विद्युत की प्रखर चमक
हम हैं स्वतंत्र जैसे प्रपात की गीत-गमक
हम हैं स्वतंत्र जैसे निदाध का तप्त प्रहर
हम हैं स्वतंत्र जैसे समुद्र का गर्जन-स्वर