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षायर / साधना जोशी

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आज दुनियॉ की महफिले जो षख्स सजाते हैं
नजरों को जमी पे नहीं आसमा उठाते हैं
कोई बिजली गर कहीं कड़क जाती है
तो वही दुम दबा के कयों भगा जाते हैं ।

जिन्दगी का सफर आषां हम समझ बैठे थे
दुनियां में हम नाजुक अपने को कर बैठे थे
हमें क्या खबर कि पत्थरों से टकराना है मुझे
हम तो अपने को सुराई बनाये बैठे थे ।

कुछ लोग रावण बन गये हैं
चोला बनावटी पहन कर थक गये हैं
तार-तार कर दिया नकली चोले को अपने
हया के लिए आखों को अपने हाथों से ही है ।

दुनियां की तारीफों में मसगूल जी होने
जो षख्स तालियॉ बजाया करते थे तारीफो पर हमारी
वक्त विगड़ जाने पर वही से आ पत्थर भी मारा करते हैं ।

हमने जीवन के हर क्षण को उनके नाम कर दिया
बदले में उन्होने सारे जहॉ में हमे ही बदनाम कर दिया ।

हमारी हॅसी को सबने देखा
हमसे जीने का सबब सीखा है
गमो से मेरे पदी उठ गया तो
उनकी आषायें निराषा में जायेगी
इस लिए मैं खामोष रहा करते है ।
गुस्ताखियों को उन की मेहर वासियों से
सहती करती हूं ।