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संग्रह के खिलाफ / भवानीप्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
हवा तेज़ बह रही है
और संग्रह जो मैं
मुर्त्तिब करना चाह रहा हूँ
उड़ा रही है उसके पन्ने
एक बूडा आदमी
चल रहा है सड़क पर
बदल दिया है उसका रंग
बत्ती के मटमैले उजाले ने
और कुत्ते उस पर भोंक रहे हैं
छाया लैम्पोस्ट की
साधिकार
आ कर पड़ी है
संग्रह के खुले पन्ने पर
हवा और कुत्ते और बूढ़ा आदमी
बत्ती और लैम्पोस्ट
सब
मानो मेरे संग्रह के खिलाफ हैं
जी नहीं होता
इस सब के बीच
लिखते रहने का
कुत्तों को भागों जाऊं
बूढ़े आदमी को
भीतर बुलाऊँ!