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संग्राम / राजेन्द्र शाह
Kavita Kosh से
संग्राम देवासुर का देखता
सर्वत्र, अपने ह्रदय की समष्टि में;
तल्लीन प्रत्येक स्वकीय शक्ति में ,
हारे हुए शीर्ष पर विजय-सा सोहता ।
विश्राम कहाँ ? आहत रक्त बिन्दु से
अनेकों का उदभव जहाँ फिर-फिर
और आयुध में जहाँ दिन भी रात्रि
समान, जहाँ घोर गर्जन घोर सिंधु से
अलिप्त जो मैं रहूँ बोधिसत्व-सा
तो दुर्ग खुले सुखपूर्ण शून्य का ।
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे