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संग्राम : और / महेन्द्र भटनागर

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जिस स्वप्न को

साकार करने के लिए —
सम्पूर्ण पीढ़ी ने किया
संघर्ष
अनवरत संघर्ष,
सर्वस्व जीवन-त्याग;
वह
हुआ आगत !

कर गया अंकित
हर अधर पर हर्ष,
चमके शिखर-उत्कर्ष !
प्रोज्ज्वल हुई
हर व्यक्ति के अंतःकरण में
आग,
अभिनव स्फूर्ति भरती आग !
संज्ञा-शून्य आहत देश
नूतन चेतना से भर
हुआ जाग्रत,
सघन नैराश्य-तिमिराच्छन्न कलुषित वेश
बदला दिशाओं ने,
हुआ गतिमान जन-जन
स्पन्दन-युक्त कण-कण !

आततायी निर्दयी
साम्राज्यवादी शक्ति को
लाचार करने के लिए —
नव-विश्वास से ज्योतित
उतारा था समय-पट पर
जिस स्वप्न का आकार
वह,
हाँ, वह हुआ साकार!

लेकिन तभी....
अप्रत्याशित-अचानक
तीव्रगामी / धड़धड़ाते / सर्वग्राही,
स्वार्थ-लिप्सा से भरे
भूकम्प ने
कर दिए खंडित —
श्रम-विनिर्मित
गगन-चुम्बी भवन,
युग-युग सताये आदमी के
शान्ति के, सुख के सपन !

इसलिए; फिर
दृढ़ संकल्प करना है,
वचन को पूर्ण करना है,
विकृत और धुँधले स्वप्न में
नव रंग भरना है,
कमर कस कर
फिर कठिन संघर्ष करना है !