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संघर्षों से हारे दिन / अभिषेक कुमार सिंह

संघर्षों से हारे दिन
मैं हूँ और बेचारे दिन

धूप खिली तो नर्म हुये
सख्त,ठिठुरते सारे दिन

रात की दुल्हन शाम ढले
झुककर रोज़ बुहारे दिन

यादों का मौसम लौटा
लौट आये बंजारे दिन

तुम बिन एक से लगते हैं
मीठे हों या खारे दिन

नींद खुली और आ धमके
ख्वाबों के हत्यारे दिन

जाल दुखों का फेक रहे
मुझपे सब मछुआरे दिन

लौट रहे हैं पंछी अब
जा जा तू भी जा रे दिन