भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

संघर्ष, समर्पण, समझौता / लालित्य ललित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी भी
कोई किसी से
संतुष्ट हुआ है ?
संघर्ष, समपर्ण, समझौता
स्वीकारती
स्त्री का हर पल
शेषण हुआ है
माँ बन
बहन बन
पत्नी बन
बिटिया बन
सास बन
कामकाजी या
नई ब्याहता बन
अपनों से छली गई
स्त्री!
सहनशील है
समर्पित है
अपने कर्त्तव्य से
बंधी है
चकरी-सी
घूमती है
घर में
कभी झाड़ू़ लगाती है
रोटी बनाती है
घर को संवारती है
घर को देती है
वास्तव में एक अर्थ
जिसमें जीवन है
सच्चाई है
और है नैसर्गिक संतोष
जो एक स्त्री ही
प्राप्त कर सकती है
कोई दूसरी नहीं
बिना स्त्री के घर की -
कल्पना
बिल्कुल ऐसे ही है
जैसे
ऑक्सफोर्ड के शब्द कोष
में निजत्व का ना होना
दिल्ली में बैठकर कोसी में
बेघर लोगों के
दुख-दर्द का महसूस होना!