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संघर्ष / अंतराल / महेन्द्र भटनागर
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छाया सघन अँधेरा पथ पर
लगता एकाकीपन दूभर,
झ×झा के उन्मत्त प्रहारों से
होता प्रखर विध्वंसक स्वर,
नव बल संचित हो प्राणों में
संघर्ष प्रकृति से नया-नया!
मंज़िल है बेहद दूर अभी
और अपरिचित मार्ग पड़ा है,
लक्ष्य ओर प्रेरित चरणों का
गतिमय संयम बड़ा कड़ा है,
राह विषम, प्रति निमिष मनुज का
संघर्ष प्रकृति से नया-नया!
शून्य गगन में प्रलय-बाढ़ से
घिरते जाते बादल के दल,
प्रत्यावर्तन दुर्बलता है
चलना ही है जीवन केवल,
घन गर्जन, चपला नर्तन है
संघर्ष प्रकृति से नया-नया!
रचनाकाल: 1945