संजीवनीबूटी / मनोहर अभय
लगता है घर के हर कौने में तुम हो
दीवार से चिपकी
दरवाजे की चौखट थामे
या खिड़की पर कुहनी टिकाए
सड़क पर आती-जाती भीड़ में
किसी पहचाने चेहरे को तलाशतीं।
तुम्हारे जाने के बाद भी
ऐसा क्यों लगता है माँ!
कि आधी रात से ही
शुरू कर देती हो रसोई में खटर-पटर
साफ करने लगती हो घड़े, बाल्टी, कलसे
नल के इंतजार में।
महसूस करता हूँ माँ!
तुम्हारी गर्म हथेलिओं का स्पर्श
जब दूखने लगता है माथा
उभर आता है दिलासा देता
तुम्हारा मुखमण्डल
अँधेरे को तीतर-बितर करते
सवेरे के सूरज की तरह।
मथानी में दही बिलोती
सुनाई पड़ती है तुम्हारी गुनगुनाहट
किसी अनसुने गीत-सी
कानों में झनझनाहट-सी भरती
रामचरित की चौपाई
गीता की सीख
या कोई ऋचा।
सच कहूँ माँ!
तुम मेरे लिए गीता का श्लोक थीं
ऋग्वेद की ऋचा
रामचरित की चौपाई
या मूर्छित सुमित्रानंदन को
जीवन देने वाली
संजीवनी बूटी।