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संझा-बेला / कुमार रवींद्र
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संझा-बेला
ढलते सूरज की जोत हमारी आँखों में
हम सिंधु-पार जाने की
बातें करते हैं
इस ओर हवा में
पीले पत्ते झरते हैं
घर है उदास
कुछ नई कोंपलें अभी आईं हैं शाख़ों में
यह धार नदी की -
उस पर सूरज लेटा है
मछुआरे ने भी
अपना जाल समेटा है
दिन है अपना
यह सूरज भी तो रहा अनूठा लाखों में
फूलों की छुवन -
उसी के सँग थी भोर हुई
दोपहर नदी में पैठी-
धूप अछोर हुई
इसके पहले
बरसों-बरसों हम रहे अँधेरे पाखों में