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संताप के दिन / कल्पना सिंह-चिटनिस

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धूं-धूं कर जल जायें
पेड़ों की पत्तियां तमाम,

किसी वृष्टि के उन्माद में
नगर, ग्राम,

देखते-देखते पिघल जायें
महाद्वीप हमारी हथेलियों पर,

समा जाएँ समुद्र में
सभी वेद, शास्त्र,

अनिश्चय की अकेली शिला पर
थरथराता रहे वर्त्तमान,

छोड़ जाये काल-सर्प
केंचुल की तरह सदियाँ, अनिष्ट,

सूरज के क्रोड़ में
आखरी किरण शेष जब तक,

शेष जब तक किसी भूखंड पर
एक भी दूब,

एक भी स्पंदन, धरती के गर्भ में -
अंगड़ाई लेते किसी एक भी अंकुर में,

मेरे और तुम्हारे संताप के दिन
तब तक नहीं।