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संतोख / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
म्हारै दरूजै
बाट जोवै
की आस, इच्छावां
म्हारै आंवण री।
मधरो-मधरो दीयो
थळकण माथै
पग मेलतांई
झुका देवै आप री लौ
स्यात म्हारै
सतकार में।
मा-बाबौ सा
ओळमैं री ओळ में
बूझै अैकै साथै
‘‘अंधारो घिर आयौ
बेटा मोड़ौ आयौ
जमानौ खराब है
इतरी रात मत करया कर
बेगौ घरां बावड़या कर।’’
पण
बैं कांई जाणै
इण जुग में
रोजीनां कुवौ खोद’र
तिरस बुझावणौं
कितरो दौरौ है
पण ओ लखाव
उणां नैं नीं होवै
कदास
औ सोच’र
चै’रौ ढक लेऊं
बणावटी मुळक सूं।
म्हूं हरमेस सोचूं
थारै थ्यावस रै साम्हीं
म्हारी रातां, दिन है
अर म्हूं भूल जाऊं
पगां रै फालां री पीड़।