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संत्रासो में / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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कथा तुम्हारी यादों की ही हरपल बाँचा करता हूँ ।
सोते जगते, खाते पीते बिसर न जाये डरता हूँ ।

मन महीप तो देश देह की दिशा दशा सब है भूला,
मैं निरूपाय विवश राही सा नित्य भटकता मरता हूँ ।

कभी बुलाते, कभी भगाते कैसा क्षेल तुम्हारा है ?
कुछ दिन तो अवकाश बिताने दोगे आशा करता हूँ ।

तू न लिख सके छनद तो भला इसमें दोष हमारा क्या ?
मैं तो तेरे मन में बनकर उज्जवल बिम्ब उभरता हूँ ।

जीवन पंथ कंटकित है, तो निश्चित है पाटल खिलना,
मन में आशा लिए कदम दर कदम आग पर धरता हूँ ।

पीड़ाओं ! तुम आशा छोड़ो मुझे पराजित करने की
संत्रासों में जितना तपता उतना और निखरता हूँ ।

करूणे ! मैं तुझमें बसता हूँ क्योंकर अश्रु सृजन करती
पिघल पिघल तेरे श्यामल नैनों से मैं ही झरता हूँ ।