संत सरमद / दिनेश कुमार शुक्ल
अब जब कि आन पहुँची है वह बेला
अब जब कि बीत चुके हैं सब दिवस-निसि
एक अरसा हो गया है वक़्त को पूरी तरह गुज़रे हुए
मळम पड़ते जाते प्रकाश की तरह तिरोहित हो रहा है आकाश
अब जब कि लेखनी अमूर्त शब्दों के घमासान में
खड़ी रह जाती है ठगी-सी
सघते-सधते लड़खड़ा जाता है सहानुभूति का छोटा-सा वाक्य,
गन्धी के इत्र की तरह ज़रा देर में उड़ जाता है
दिखते-दिखते विलीन होता हुआ सत्य,
एक कैसा भी संकल्प अंजुलि के पानी-सा बह जाता है हाथ से,
जिस ज़मीन पर ज़ोर देकर खड़े रहा जा सकता था
वह जल-सी तरल हो जाती है और
अस्तित्व में आते न आते सभी कुछ
विलीन होने लगता है नास्ति के समुद्र में
अब जब कि मन में उठता है एक हौसला
कि कॉंपने लगती है सारी काइनात,
अब जब कि लुटेरों के छद्म
संसार के अन्तिम सत्य के रूप में प्रचारित किए जा रहे हैं,
पेट्रोल के आतंक में सराबोर है दुनिया
सूखे हुए जंगल-सी,
अब जब कि ख़ुद-ग-ख़ुद
निरपराध अपने सिर ले ले रहे हैं
हत्यारों द्वारा किए गये सारे अपराध
ऐसे में अभी आन पहुँची हुई बेला को
मुल्तवी करना होगा
और अपने पक्ष में करना होगा
भाषा को, जंगलों को, संगीत को, नदियों को,
औषधियों को, बच्चों को, स्त्रियों को और
सारे वंचितों को
साधना होगा अभी इस सारे रचना विधान को
मनुष्य की आत्मा के लिए सन्त सरमद की तरह।