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संदेह / अजित सिंह तोमर
Kavita Kosh से
उत्तरोत्तर होता जाऊँगा मैं
बेहद सतही और सस्ता
नही नाप सकेंगी
तुम्हारे मन की आँखें भी
मेरी चालाकियां
प्रेम और छल को मिला
झूठ बोलूँगा मैं
पूरे आत्मविश्वास के साथ
किन्तु परंतु के बीच रच दूंगा
एक महाकाव्य
जहाँ ये तय करना मुश्किल होगा
ये स्तुति है या आलोचना
खुद को खारिज करता हुआ
निकल जाऊँगा उस दिशा में
जिस तरफ तुम्हारी पीठ है
कवि होने का अर्थ हमेशा
सम्वेदनशील होना नही होता है
कवि को समझनें के लिए बचा कर रखों
थोड़ा सा सन्देह
थोड़ा सा प्रेम
और कुछ सवाल हमेशा
कवि और कविता का अंतर
एक अनिवार्य सच है
भावुकता से इतर
शब्द और अस्तित्व के बीच
फांस सा फंसा हुआ सच।