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संध्या का दिव्यालोक / उपेन्द्र कुमार

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घर जाने की
जल्दी में
जब तेजी से
कदम उठा रहे होते हैं आप
उस
पतली पगडण्डी पर
छपते निशानों और
दर्ज होती
पगध्वनि के साथ
तब देख सकते हैं
कुछ देर तक
धरती पर उतरने वाला
दिव्यालोक

असताचल मुखी
सूरज
जब रंगों को
रंगों से बदलता
लगा देता है
एक प्रदर्शनी
तक क्या आप चुन पाते हैं
अपनी प्रियतमा के लिए
कोई ओढ़नी या चुनरी
जब दिखाई पड़ता है गाँव का
धुँधला सिवान
छप्परों के बीच से उठते
धुएँ के बड़े-बड़े स्तूप
देख पाते हैं क्या
उनमें बनते-बिगड़ते विभिन्न आकार
ठिठक सोचते हैं क्षणांश
इतना कम धुँआ
क्यों उठता है कुछ टोलों से

लगते हैं
सजातीय
वे शीशम के अबोध
लम्बे ऊँचे वृक्ष
छायाएँ जिनकी
होती जाती हैं लम्बी
दिनांत में
साथ देने के लिए

बतियाने की ललक में
दौड़ता आया वो पहला तारा
उमग/उचक पंजों पर
पूछता है-
कहाँ/कौन
तो क्या आप उत्तर में
रह जाते हैं मौन

दीखती है जब पहली चमक
दीए या लालटेन की
अँधेरों के बीच
तो क्या आपके भीतर नहीं होती
प्रज्वलित कोई लौ
मन के कोनों को
करती आलोकित
किसी तरफ से आती
दूध धार की
मोहक... गर... गर... ध्वनि
खींचती है
तेज चाल को
और छोड़ देती है
किसी याद के
घने एकान्त में

पहुँचती है जब कानों तक
थकी बूढ़ी / रामचरितमानस / गाती आवाज
तो आता है याद
राम का वनवास
उभरता है बरसों घर से
बाहर रहने का
पश्चाताप

पोखर किनारे मन्दिर में
आरती की घंटी
किसी प्रौढ़ को भी
बना देती है शिशु
और तेजी से बढ़ते हैं कदम
सच, क्यों नहीं जान पाते
ये सब
जब लौट रहे होते हैं आप
जल्दी में घर
क्यों नहीं देख पाते
अपनी ही किसी विस्मृति में
संध्या का दिव्यालोक