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संध्या के झुटपटे में / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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(दिन का संगीत रुक गया है। थकी-माँदी संध्या आसन जमा रही है। आसमान के चित्र-पट पर तारे एक-एक कर आ रहे हैं। क्षीण चन्द्रमा लाल मूँगों के रूप मंे प्रकाश बिखेर रहा है। सारी सृष्टि मानों एक अद्भुत आवेग में सिहर उठी है।)

पश्चिम के शान्त उदधि में
स्वर्णिम कुन्तल रवि सोया,
नभ के गुलाल गालों का
उपहार प्रेम का खोया।

किसकी काली अलकों की
धूमिल छवि धीरे-धीरे,
उपवन में लता-भवन में
छा रही क्षितिज के तीरे।

जूही, रजनीगन्धा के
फूलों से बुन अवगुण्ठन,
रजनी सज-धज कर आती
करने जग का अभिनन्दन।

कोयल, खंजन, बक, बुलबुल
शंुक, पंडुक, वायस, तीतर,
उड़ चले नीड़ में अपने
नीरव तम से घबड़ा कर।

रोमंथन करती गाएँ
दौड़ी थानों को जातीं,
निज पावन पीन थनों से
बछवों को सुधा पिलातीं।

खरगोश, लोमड़ी, सेही
माँदों से निकल विचरते,
बीहड़ तृण, तरु, गहवर में
झिल्ली वंशी-रव करते।

जीवन के श्रान्त पथिक-से
स्वर्णिम प्रभात के शतदल,
झुक ऊँघ-ऊँघ वृन्तों पर
निज मँूद रहे लोचन-दल।

सरिता के वक्षस्थल पर
तारक शिशु-वृन्द सलोने,
हिलमिल-झिलमिल मुसकाते
करते आँखों में टोने।

तरु की भीगी अलकों से
मोती-लर बिथुर-बिथुर कर,
है मचल रही बच्चों-सी
चूकर दूबों पर मरमर।

जुगनू के जगर-मगर से
यह छवि की ज्योति निकलती,
सूने झंखाड़ विजन में
सोने की लंका जलती।

मेघों की नील टुकड़ियों
से ठुकराता, बल खाता,
लुक-छिप धन-अन्ध-गुहा में
वह क्षीण चन्द्रमा जाता।

शीतल समीर के झोंके
रुक-झुक पत्तों से बहते,
संध्या के अन्तस्तल से
ठंढे निःश्वास निकलते।

वह मन्द-नयन चमगादड़
उड़ तरु-तरु से चकराता,
लघु-लघु मुखरित पंखों से
युग-युग का मौन मिटाता।

वह विजन व्योम के उर में
बरसाता निखिल प्रणय-धन,
चुम्बित मदिराभ नयन-सा
यह तन्मय मंगलमय क्षण।

लज्जा की चादर ओढ़े
वह इन्दु-ज्योत्स्ना सुन्दर,
तिरती फिरती सरसी में
जाने किस मृदु इंगित पर।

वह सिहर लहर तरु थरथर
हिल डुला सिराता अन्तर,
मरमर स्वर में जाने क्या
कहता जग से हँस-हँसकर।

संध्ये, तेरे जीवन को
हिम-शिशिर शिथिल कर देता,
ऋतुपति पिक के पंचम में
प्राणों में मधु भर देता।

ग्रीषम तेरी छाया में
क्रीड़ा कर हृदय जुड़ाता,
पावस शीतल बूँदों से
रिमझिम तुझको नहलाता।

ले श्वेत काश-फूलों की
श्रद्धांजलि शरद् चढ़ाता,
हेमंत तुझे हरियाली
का चीर हरित पहनाता।

सुख, शान्ति, प्रेम कण-कण में
सौैन्दर्य्य-सुधा भर देता,
संध्ये, तेरा यह शासन
जीवन शिवमय कर देता।

दुख-ज्वाला के व्याकुल है
जग-जीवन का दुर्बल मन,
शीतल तेरा अन्तस्तल
री, चिर-सुख का अवलम्बन।

तेरे तम-तोम-उदधि में
हो शान्त जगत की हलचल,
अभिलाषा, चिन्ता, उलझन,
जीवन का कटु कोलाहल।

(रचना-काल: नवम्बर, 1940। ‘हंस’, जुर्ला 1941 में प्रकाशित।)