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संध्या तारा / अज्ञेय
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कभी मैं चाहता हूँ कभी पहचान लेता हूँ
कभी मैं जानता हूँ चाहना-पहचानना कुछ भी नहीं बा की-
तुम्हें मैं ने पा लिया है।
कभी बदली की तहों में डूब जाता है सुलगता लाल दिन का,
बलाका रेख-सी स्मृति की कभी नभ पार करती चली जाती है
कभी आँगन में अकेले सद्य जागे मुग्ध शिशु जैसा
स्वत: सम्पूर्ण तारा चमक आता है।
कानपुर (रेल में), 2 सितम्बर, 1952