Last modified on 2 मार्च 2011, at 17:42

संध्या (कविता का अंश) / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

संध्या(कविता का अंश)
तुम्हें नीर दे सकी, हाय पथिक मैं नहीं
इसी बात से कुपित न हो जाना कहीं
ढोल मंजीरे बजा, निर्झरी को जला
चली गयी सुन्दरी नीर से भरी भरी
////
जाने क्यों मुख फिरा दौडकर चली गयी
निर्जन में सुन्दरी, नी से भरी-भरी
(संध्या कविता से )