संपाती-गाथा / योगेन्द्र दत्त शर्मा
सूरज पकड़ने की ललक
बेकार का ही था भरम
अब सोचता खामोश तू, ओ वृद्ध संपाती! तुझे
उद्दाम अति-उत्साह का कैसा मिला कड़वा सबक!
पर जल गये तेरे
गिरा फिर लड़खड़ाकर तू विवश
इस अग्निवर्षक व्योम से,
छूकर धधकती धूप को
गलते, पिघलते ही गये फिर
अंग तेरे मोम-से;
लगने लगा जीवन नरक
उत्साह का यह प्रतिचरम
अंधी गुफा में बैठकर बस ऊंघना या सोचना
संतप्त रहना या भिगोना मौन शोकाकुल पलक!
निर्बन्ध यात्रा और
जोखिम से भरी ऊंची उड़ानों का
यही सीमांत है,
झुर्री पड़ी पलकें, जले डैने
अंधेरी खोह का
सीलन-भरा एकांत है;
अभिसार से अभिशाप तक
अब शेष हैं ये आंख नम
बेहद अकेलापन, थकन, कुछ ध्वस्त सपनों की
दिशाहारा जलन, विगलित व्यथा, आकाश तकना एकटक!
अपने विगत संघर्ष की
दुस्साहसों की अधजली
झुलसी पिटारी खोलकर,
तू आज भी जब फड़फड़ाता है
अचानक कसमसाकर
पंख अपने तोलकर;
मन में कहीं जाता दरक
कुछ व्यंग्य, पीड़ा व्यर्थ श्रम
तब-तब सहोदर बंधु, अनुज जटायु की चेतावनी
अपना थका जीवट कहीं मन में जगा देता कसक!
रचने चला इतिहास तू
संकल्प-पुरुषों की तरह
खुद खो गया इतिहास में,
तेरी यशोगाथा मिटी
धूमिल क्षितिज के चित्र-सी
शामिल हुई उपहास में;
उपलब्धि का रीता चषक
टूटन, घुटन, बीमार क्रम
क्षत भोजपत्रों पर उगे निर्जीव अक्षर बांचना
तेरी नियति है क्या यही-अंधी गुफा की गुंजलक!
क्या पा लिया क्या खो दिया
इसका न कर अब आकलन
यह जीत है या हार है,
संघर्ष ही था सामने
यह सोच बस
इस चोट का शायद यही उपहार है;
अब और मत आंखें झपक
घिरता हुआ यह घोर तम
छंटने लगेगा, बंधुवर! गहरी निराशा से उबर
इतिहास है तेरा अभी, तू बन गया जीवित मिथक!
साहस किया तूने, उड़ा
आकाश में, यदि छू न पाया
सूर्य को, तो क्या हुआ,
कैसा ज्वलंत उदाहरण
प्रस्तुत किया,
क्षितिज तूने हुआ;
संभावनाओं का
अब सूर्य में तेरी चमक
तेरे लिए यह सुख परम
लौटा हुआ विश्वास है तू व्यक्ति का-धु्रव और दृढ़
है नई पीढ़ी के लिए, क्या और कुछ बेहतर सबक!
-9 मई, 1995