संबल / महेन्द्र भटनागर
प्रगति ही ध्येय जीवन का, बना संबल !
गहन जीवन-समुंदर में
रहीं प्रतिबार उठ-गिर वेग से लहरें,
बना सुख-दुख किनारे
ज़िन्दगी बहती सरल-दृढ़ बन, बिना ठहरे,
उमड़ते ज्वार के सम्मुख
तनिक भी प्राण मानव के नहीं सिहरे,
जटिलता राह की कब कर सकी दुर्बल ?
झुका कब शीश मानव का,
निमिष भर, पत्थरों की चोट से पीड़ित,
हुआ कब धैर्य जीवन में
सबल युग-प्राण का किंचित कहीं विगलित,
प्रहारों से हुआ देदीप्य मुख,
बढ़ती गयी तन कांति हो ज्योतित,
सतत युग-साधना-व्रत चल रहा अविरल !
हिमालय-सी सुदृढ़तम दीर्घ
बाधाएँ खड़ी हैं राह में अड़कर,
बरसते व्योम से शोले, धधकते
लाल, धू-धू जल रहा हर घर,
गिरा देना कठिन पथ पर
हवाएँ चाहतीं बहकर प्रखर सर-सर,
चरण पर, बढ़ रहे हैं, ज्वाल में जल-जल !
बनी तूफ़ान-स्वर साथिन
अमर यौवन भरी ललकार यह मेरी,
डोलती है वायु में उन्मुक्त
जीवन-चेतना-तलवार यह मेरी,
हिला देगी सुदृढ़ पर्वत —
शिला-अन्याय की, हुंकार यह मेरी,
हृदय में आग, नवयुग की मची हलचल !