संभव तृण रूप हरित संभव / संतलाल करुण
सुनो प्रिये, अब नहीं चहकते प्राणों के पाँखी होठों पर
नहीं सरसते लय-नीड़ों में साँसों के सहमे सुवास
कैसे तुम्हें सहेजूँ प्रिय, अब बढ़कर पात-पात से आगे
मृगछौनों से भीतर-बाहर सारे गरल कुलाँच रहे।
ओ प्राण प्रिये! ओ हृद-लतिके! ओ कुक्षि-ज्योति संसृति की!
अब बुद्धि-वह्नि की दाहकता अंतस्तल में भी व्याप गई
चलो छिपा दूँ त्याग तुम्हें उस अदृश् देव के अन्तःपुर में
जहाँ से आई हो धरती पर मुझ मृणमय की साध सजाने।
तुम देख रही युग खींच रहा परमाणु सधी बम-प्रत्यंचा
आ रहा चला कैसा प्रवात उच्छृंखल अट्टहास लेकर
छल-बल का डंका पीट रहा निर्मम हाथों से क्रूर काल
विकलित निरीह संवासिनियों-सी डरी दिशाएँ काँप रहीं।
ओ सुनो सुधे, अच्छा ही है आ रहे दिवस काले भी हों
धरती से फूटे मार्तंड बिन नभ की नील-पिछौरी के
न अमानिशा कुंतल खोले फैला हो फिर भी अंधकार
कितना भी राकाशशि चमके पूनम फिर भी धुर काली हो।
अच्छा है निर्दय विज्ञ दनुज बरसा दे संचित आयुध सब
और स्वयं हो जाय भस्म अपने वैभव के फूत्कार में
विषधर वरदानी मणिमाया में झूम उठे दानव-प्रतिभा
और उठाकर धरे हाथ फिर वही स्वयं अपने सिर पर।
फिर विहान के नव नभ में जब खिल आये नव नीलकला
जब नवल उषा स्मित फेरे, जब नव संध्या संकेत करे
फिर सोहर गाती इठलाती जब नव ऋतुएँ नाचें-गाएँ
जब सूरज हँस सोना बाँटे, जब चंदा चाँदी छितराए।
धर रूप प्रिये, तृण की हरीतिमा का आना
मैं भी मोती बन आ तुम पर छा जाऊँगा
तुम पलकों से छूकर अमरत्व पिला देना
मैं होठों से तुमको छू फिर जी जाऊँगा।