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संरक्षा / निशांत-केतु / सुरेन्द्र ‘परिमल’

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शुभ घड़ी मुहुर्त्त देखि अनुकूल,
पादुका राम के सिंहासनीन।
सब सचिव बोलाया पोषण-कर्त्ता
निर्दिष्ट करलकोॅ कर्मलीन।

शिर जटा-जूट वल्कल-धारण
ई कोन ऋषि केकरोॅ कारण?
नन्दी गाँव में पड़लोॅ छै
साधना अडिग ई करलोॅ छै?

वन के आसन, वन के वासन,
वन में रहि के जन पर शासन!
केहनोॅ राजा! प्रहरी विहीन
संतृप्त स्वस्थ-मद-मोह हीन!

मुख पर दृढ़ता के अचल भाव,
शुभ सौम्यपूर्ण शीतला स्वभाव।
ई दिव्य तेज भरलोॅ दिनकर,
अथवा विभूतिमय शिव-शंकर!

सम्मुख सुवर्ण सिंहासन पर,
छै दीप्त युगल पादुका प्रवर।
पूजन-अर्चन में परम लीन
ई कोन व्रती छै आत्मलीन!

ई ज्ञान-कुंज परमात्म-पुंज,
भव के भंजक श्रद्धा-निकुंज!
मन-मंदिर में श्री राम-नाम
निष्काम निरत, मुद पूर्ण काम!

स्वर्गिक आभा देदीप्यमान
दिव्यांश कुटी में वर्त्तमान!

रमणीक उपवन, शीतल समीर
जटा-जूट मन, रामधीर।
सुनि कें नभ में गुरू गर्जन कें
यति-ध्यान सहस नभ-वर्षण कंे।

लेकिन नै, अद्भुत खेल यहाँ
नभ में उड़लोॅ छै शैल वहाँ।

ई कोन निशाचर! विषम रूप,
अथवा माया के प्रखर भूप।
चाहै छै नाश अयोध्या कें,
दुस्साहस केहनोॅ योद्धा के।

प्रभु राम यहाँ से दूर वास,
ई बीच राज्य के सर्वनाश।
हम प्रतिनिधि, जन के, रक्षण कें;
दायित्व-बोध संरक्षण के।

यदि पर्वत धरती पर गिरतै,
बेशक पुरवासी सब मरतै।
हम प्राण राखि कें की करबै;
केकरोॅ हित ई काया कें धरबै।

बहुजन हिताय ई प्राण-मोल,
बहुतन सुखाय ई कर्म-बोल।
हर साँस प्रजा सें जुड़लोॅ छै;
हर धर्म धरा पर मुड़लोॅ छै।

मन में उद्वेग नया चढ़लोॅ,
वीरत्व भाव आगू बढ़लोॅ।
आँखी में ज्वाला धधकै छै;
आगिन भीतर से दहकै छै।

तापस में पुँजीभूत ज्वाल,
शिव के स्वरूप कंपित-कराल।
जब विघ्न सामने ठाढ़ हुवे
करतब नै ओय सें आड़ हुवे।

तत्क्षण ओकरोॅ प्रतिकार करोॅ
जे आयुध, वैसें वार करोॅ।
आयुध नै जीतै के कारण,
मन में दृढ़ता जय के धारण।

तप तेज शौर्य के मूल दीप्ति,
जेता के जय के गहन गुप्ति।
रण में बाहु नै, धैर्य प्रबल
निष्ठा के जगलोॅ रूप सबल।

अभिमंत्रित तृण-वाण भरत करि कें
लोकोॅ के कल्याणेॅ कं वरि कें
संधान करलकै नभचर पर,
दुश्मन विशाल पुर-क्षयकर पर।

मूर्च्छित, मुख सें श्रीराम बोल
सुनि कें शंकित मन गेलोॅ डोल।
सम्मुख हनुमत मुख उदासीन,
दारूण दुख पीड़ा दुसह दीन।

सब कथा कहलकोॅ रामोॅ के
मूर्च्छित लक्ष्मण के, वाणोॅ के।
आहत भरत अधीर उसँसलोॅ
हाय दैव! हम शुभ कें नसलोॅ!

हे हनुमंत! वाण के ऊपर,
शैल समेत चढ़ोॅ, जा तत्पर।
नै संकोच करोॅ तों मन में
वाण तोरा लै जैथोॅ क्षण में।

लक्ष्मण के प्राण बचाना छौं,
भाई के धीर बँधाना छौं।
भातृ सें कहिहौंॅ क्षमा-दान
मति-मंद, मूढ़ हम अल्पज्ञान।