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संवर्धन / निशांत-केतु / सुरेन्द्र ‘परिमल’

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वनवासोॅ के अवधि पुरलोॅ
एखन्हौ तक नै भैया धुरलौॅ
कुछ-कुछ चिंता झकझौरै छै,
यतिवर के मन कें तोड़ैं छै।

देखैल आतुर तृषित नैन
कब सुनवै हुनकोॅ मधुर वैन।
पुरवासी आस लगैने छै,
स्वागत के थाल सजैने छै।

उल्लसित सकल नर-नारी छै,
वन-वाग मंजरित क्यारी छै
चिन्ता-जुड़लोॅ पुरवासी सें
कोशलाधीश उरवासी में।

जन सभा बीच जानकी राम,
लक्ष्मण हनुमत मुनि ज्ञान-धाम।
सुग्रीव, नील, नल, जामवंत
अंगद लंकापति शील संत।

आनंदमग्न पुर नर-नारी,
पल-पल प्रफुल्ल सुर सुख भारी।
उर में उल्लास, हर्ष बरसै,
दर्शन-आतुर आँखी तरसै।

मंगल ध्वनि सगरो गूंजै छै,
आरती-थाल संग पूजै छै।

शुभ घड़ी, दिवस शुभ, योग प्रबल,
द्विजवर तत्पर अभिषेक जुड़ल।
सब भ्रातृ-वृन्द भूषण रखने,
श्रीराम रमा जल्दी पहने।

माता आशीषै छै मन सें,
जय-जय के ध्वनि आवै छै जन सें।
राज्याभिषेक में लीन सभा,
साकेतपुरी में पूर्ण-प्रभा।

मुनिराज वशिष्ठ तिलक वारै
द्विजगण मंत्रोॅ कें उच्चारै।

देवता फूल बरसावै छै
जन-समुदय हर्षित गावै छै।

सब श्रैष्ठ जनॅ कें करि प्रणाम,
श्रीराम भरत के बाहु थाम।
संबोधै सकल समाजोॅ कें,
महिमा-मंडित युवराजोॅ कें

”-संसार आय कुत्सित मलीन,
पद-लोलुपता सें ग्रसित-हीन।
हौ सेवक जनता के महान,
जिनकोॅ सेवा निस्पृह, समान।

”-दृष्टि में सबके सुख-भावन,
निश्चय चरित्र हुनकोॅ पावन।
अन्तः जे भाव हिलौरे छै,
बाहर जन कें ऊ बोरै छै।

”-राजा ऊ, जे जन-हित कें जानै,
अपनोॅ जनता कें प्रभु मानै।
जब अहं मुकुट पर आवै छै,
तब रोशनी नाश के लावै छै।

”-सुख-शांति अगर सगरो रहतै,
कोय कारण नै, विपदा बढ़तै।

-”ई भ्रातृ भरत पोषण-कर्त्ता,
धरती के दारूण दुख हर्ता।
माँटी के गढ़ने छै श्रम सें,
जन-युग कें लिखने छै मन सें।

”-तों धन्य धन्य हमरोॅ भाई!
शंसित छौं तोहरोॅ प्रभुताई।
युग-युग के छ तों स्वाभिमान
जन-जन के नेता के प्रमाण।

”-सत्ता मद के नै तनिक लेश
सुख-शांति-पूर्ण तोहरोॅ स्वदेश।

”-समता के फूल खिलावै जे,
भ्रातृत्व गीत के गावै जे;
जे सनेह जगत में बरसावे,
सच में हो राजा कहलावे।

”-जेकरोॅ चरित्र आचरण शुद्ध
हौ स्वस्थ, सफल शासक, प्रबुद्ध।

”-वाणी सें जुड़लोॅ सदाचार,
भीतर सें भरलोॅ कदाचार;

ऐहनोॅ राजा नर में कलंक,
ओकरोॅ चिरत्व हर पल सशंक।

-हे सखा भरत! तों तात-तुल्य
पुर-प्रजा-प्रेम के प्राण-मूल्य।
तोहरोॅ छाया में पितृ-भाव,
कहियो नै केकरोॅ कोय अभाव।

”-सद्भाव वहाँ पर बरसै छै
सब लोग जहाँ नै तरसै छै।

”-हमरा ई तिलक भने पड़लोॅ
पर राजभूमि तोहरोॅ गढ़लोॅ।
आधार प्रजा के, तों प्रवीण,
तोहरा आगू हम महाक्षीण।

”-जेकरा लेल हम धरलौं धनुष-वाण,
तोहरोॅ स्वभाव सें हौ सुकाम।
हमरोॅ प्रहार में पशुता छै,
तोहरोॅ पुकार में नरता छै।

”-तों हृदय-हृदय के देव-मूर्त्ति,
मानव में छिपलोॅ महास्फूर्ति।
उर-वीणा के झंकार नवल,
नवयुग के नव स्वर, राग प्रबल।

”-मुट्ठी में तोहरोॅ आकाश नया,
आँखी में भरलोॅ विश्वास नया।
स्थिर वितान के तों स्त्रष्टा,
भावी सुराज के तों द्रष्टा।

”-हे बंधु! भरत छै पूजनीय,
हर तरह समादृत वंदनीय।
हमरोॅ रज उद्धारक एक नारी
तोहरोॅ सें तरलोॅ दुनिया सारी।

”-हे भरत, अगर तों नै रहतं
हम रावण संग के ना लड़तं।
निश्चल मन के हौ रहै जीत,
अरि-दल पर बढ़लोॅ पद अभीत।

”-हे मानवता के महासेतु,
हे आत्म-विजयके महाकेतु।
ई पुण्य-प्रहर तोहरोॅ रचलोॅ,
सुर शांति-गीत तोहरोॅ गढ़लोॅ।

”-तों मार्ग प्रशस्त सतत करल्होॅ
निष्कट भविष्य सुदृढ़ करल्होॅ।
हम युद्ध निरत उद्विग्नमना,
तोहरोॅ अनुभव अति दीर्घ-घना।

”-युग-युग कृतज्ञ तोरोॅ रहथौं,
कर्त्तव्य-कथा कहथौ-सुनथौं।
आँसू में डुबलोॅ धरती कें
उर्वर करल्हो तों परती कें।

”-हर युग में ईर्ष्या बोलै छै,
बड़का-बड़का कें तोलै छै।
पद के मद में सब लीन यहाँ,
एकरोॅ सम्मुख सब दीन यहाँ।

”-धन-धाम-धरा के विपुल योग,
पावी कें पागल आय लोग।
प्रियवर कीचड़ के बीच कमल,
मधुमय पराग, उर अमल-धवल।

”-हर हृदय सुवासित स्नेह-सिक्त,
तैय्यौ नै इनकॉे हस्त रिक्त।

”-हे तीर्थराज सत्संग प्रवर,
तप-तेज तृप्त कामना प्रखर।
पृथ्वी पर स्वर्ग-सृजन-कर्त्ता,
जन-गण के हीन-भाव-हर्त्ता।

”-अमृतमय ज्योतिर्मय स्वरूप,
जीवन जगती के सॉस धूप।
कण-कण में रस अपनोॅ भरल्होॅ
वाणी सें नै कुछ भी कहल्होॅ।

”-माँटी के भाषा में प्रजातंत्र,
जागरण प्रेम के महामंत्र।
संजीवन जेकरोॅ आत्म-ज्ञान
निश्चय हौ नेता जन माहन।

”-सबसें बड़ा पुण्य मानवता में,
विकास कें भरना,
कलुषित दानवपूर्ण सोच कें
जन-मानस सें हरना।

”-मूर्ख, उदंड दुराचारी चिंतन
नै कखन्हौ पनपै पारैॅ;

शुभ विचार के शुभ्र-ज्योति में
पंछी पाँख पसारै।
”-एहनोॅ सोचैवाला नेता ही,
धर्म-धुरीन बनै छै;
युग-युग तक इतिहास-पृष्ठ
ओकरहै कुलीन गनै छै।

”-चारूता के अर्थ-
शुचिता के प्रबल प्रवाह;
स्रोत महिमा के अपरिमित,
नै हृदय के दाह।

”-कर्म जब आश्रय धरै छै,
पुण्य बनि कें प्रजा-जन में;
किरण फूटै छै प्रभा के
साधना के गहन वन में।

”-आँखी में जिनकोॅ स्नेह-सिंधु
हर जनता जिनकॅ प्यारी छै।
हौ चक्रवर्ती सम्राट् छेकाथ,
सचमुच नेता अधिकारी छै।

”-है गद्दी, नै केकरोॅ लिखलोॅ छै,
नै राजवंश सें जुड़लोॅ छै।
उत्थान करे जे धरती के
ओकरोॅ लेल आसन बनलोॅ छै।

”-राज-सिंहासन धन्य-धन्य,
पावी कें कुशल प्रशासक कें।
हौ धरा धन्य, अतिशय पावन
बैठावे दिल में जे शासक के।

”-जे परम्परा में राजतंत्र,
ऊ लोकार्पण मं प्रजातंत्र।

जनता कें अपनोॅ स्वर मिललोॅ छै
कैकेई के भाषा में।
अग्रज के शिर पर मुकुट पड़े,
-ई बात, तात-अभिलाषा में।

”-तोहरोॅ संग जुड़लोॅ जनाधार,
हम कुल-धारा के एक तार।

खिललोॅ छै पहली बार धूप,
कैकेई के वरदानोॅ में।

ढहलोॅ छै पर्वत प्रथम बार,
मंथरा दाय के ज्ञानोॅ में।
”-समझोॅ एकरा संक्रांतिकाल
युग के धारा के सुखद चाल।

”-पादुका राज के चरण-चिह्न-
शृंखला तंत्र के।
कांक्षा जन-प्रतिनिधि के महती,-
गोपनीय मंत्र के।

”-आत्मा उभय में विराजमान,
मस्तिष्क उभय में भासमान।

”-आकाश धरा पर उतरै छै,
या धरती कुछ-कुछ उभरै छै,
जीवन कण-कण में बरसै छै,
संसृति झूमै छै, हरसै छैं

”’-निर्माण-पूर्व के ध्वंस-काल
विस्फोटक, घातक, अतिशय कराल।

जब तेजपूर्ण सूरज चमकै,
धरती तब स्वच्छ-विमल दमकै,

जीना विषकीट महामुश्किल,
तृष्णाकुल खोजै धातक बिल।

”-संतुलन चाँदनी सें करना
निर्माण-नींव भू पर रखना।
बस राष्ट्रपुरूष सें ही संभव
जे करे विकास, करे उद्भव।

”-धरती कें जे माता मानै
जन-गण कू चिर आश्रय जानै;
अम्लान-सुखद-उर-मुख-मंडल
ओकरोॅ उच्छवास पूर्ण-परिमल।

माया, मद, मोह, मान, मत्सर
निष्काम, निरत हर राम-प्रेम,
परिशांत चित्त, मन मौन ग्रहण
जीवन-जगती संग आत्म-नेम;

श्रद्धा-सम्पन्न भरत-जीवन,
जन-गण में परम राम-दर्शन,
जाग्रत प्रज्ञा, साधना लीन
सात्विक उपासना, दंभ-हीन।

पुरूषार्थ-सिद्धि के पंच कोष:
नर के भूषण के भरत नाम;
युग-युग तक जन-प्रतिनिधि के वरेण्य,
सिद्धि-समृद्ध अमरत्व खान।

”-हम पुरा काल, तों युग नवीन
भास्वर विकास कर्त्तव्य-लीन।
हौ अधिकारी कें, कर्त्ता कें
अर्पित प्रणाम दुख-हर्त्ता कें!

”-हम गर्व-भूमि पर ठाढ़ आय
सर्वांगपूर्ण, सर्वांश-दास।
चाँदनी शिखर पर, घाटी में,
जगलोॅ सुवास छै माटी में।

”-आदर्श साँस में जब महके,
श्रम के सीकर-कण में टपके;
चेतना-कर्म में एक मंत्र,
आदर्श-पूर्ण तब प्रजातंत्र।

”-सम्प्रभु राज्य के नै डोले,
बाहर-भीतर अरि नै बोले;
जेतन्हैं दृढ़ एकरोॅ तार-तंत्र
ओतन्हैं सुस्वस्थ युग-प्रजातंत्र।

”-केवल निर्वाचन; नै प्रजा-मोल,
मढ़लोॅ चमड़ा के मात्र खोल;
भीतर दानव के ध्वंस-राग,
बाहर लिखलोॅ तीरथ प्रयाग।

”-अभिनय निर्वाचन के करना,
निर्वचनोपरान्त अपनोॅ गढ़ना,
सब दोष विपक्षी पर मढ़ना;
है दंभ सुशासन के भरना।

”-जनता निरीह, भोली-भारी
लेकिन धरती के अधिकारी;
ओकरोॅ सद्भाव कें जे मारै
समझोॅ हौ पुण्य-प्रहर टारै।

”-जन के अधिकार चयन करना,
मन के अनुकूल वरण करना;
जन के हितार्थ जन-कार्य करे
प्रतिनिधि जन-जन के कष्ट हरे।

”-जब हृदय-हृदय राजा मानै,
अपनोॅ नेता कें पहिचानै;
अनुकूल साज, सब वाद्य-यंत्र,
बूझोॅ तब अैल्होॅ प्रजातंत्र।

”-पातक प्रतिनिधि के नीच कर्म,
हौ मनुज नीच, च्युत शील-धर्म;
नर में कलंक, नर के दुश्मन।
नै दोष उड़ाबै में गर्दन।

जनता में न्याय निबसलोॅ छै,
आन्दोलन माँटी सें जुड़लोॅ छै।
भूचाल धरा कें फोड़ै छै,
शृंखला पहाड़ कें तोड़ै छै।

”-जब छाया सें परितृप्त लोक,
मेटे राजा संतप्त-शोक।
ककरहौॅ नै कोय करे भक्षण,
तब बूझोॅ देश के शुभ लक्षण।“

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जय-जन-नायक! जय जनाधार।
जय-जय-शासन! जय जनोद्धार।
जन-गण-पालक! जय दुखहारी।
जय-सृष्टि-दृष्टि! हम बलिहारी।

गूँजै सरंग मंे जय-जय-जय!
जय जय श्रीराम! भरत जय-जय।