भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
संवाद / अनूप सेठी
Kavita Kosh से
आप यूँ ही खड़े हों
पता नहीं क्या सोचते हुए
दूर लोगों को जाते देख हाथ बढ़ा दें
बांह खिंचती चली जाए
फर्लांग दो फर्लांग
किसी के कँधे किसी के बाल किसी का बैग छूने
लोग अनमने अनजाने
व्यस्त अभ्यस्त
निकल जाएँ अपने अपने कामों से
खींच लें हाथ को वापस
अपनी देह के पास
पसीने से ज़रा सा भीगा हुआ
आएँ याद मित्र अपनी व्यस्तताओं में
एक सोच उभरने लगे
मित्रों को क्या क्या दुख होंगे
क्या क्या मजबूरियाँ
फिर छाती से बाँधकर हाथ
आप कहें यूँ ही नहीं खड़े थे
पता नहीं क्या सोचते हुए।