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संवेदनाएं / मनोज चौहान

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वक्त की दौड़ में ,
धकेल दिया है खुद को ,
आगे की ओर,
जहाँ से चाहूँ भी ,
तो लौट नहीं सकता l

स्मृतियों के उफान में,
अक्सर ,
उभर आती हैं संवेदनाएं ,
बना देती हैं अक्स,
बीते हुए लम्हों का l

वह ले जाना,
चाहती हैं,
पीछे की ओर ,
कर देना चाहती हैं ,
मुझे भी अनभिज्ञ ,
अपनी तरह l



और जब उफान ,
हो जाता है बेकाबू ,
तो सोच के समन्दर से,
उड़ेल देता हूँ चंद बूंदे ,
शीतल जल की मानिंद l

झनझनाहट के साथ,
थम जाता है,
फिर उफान,
मैं लौट आता हूँ ,
पुनः ,
उसी जगह |