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संसार की दरारों से / नवीन सागर
Kavita Kosh से
इतने बजे का आकाश
इतने सालों से नहीं देखा
आए
सड़कों के जाले मे घूमते-घूमते
लड़खड़ाए
और कहीं भी गिर पड़े.
उठने का समय हुआ
दु-स्वप्न
अंधकार सा लिपटा चला
चेहरा झर गया
इतने सालों के आईने में
पीली मद्धिम रोशनी में
धुएं और विदाई की धुंध है
बहुत बड़े नरक का शोर
आवाज के भीतर
पछाड़े मारता है जब हम
विश्वास दिलाते हैं
और थपथपाते हैं हाथ
संसार की दरारों से
देखते हैं पुरखे
कि चित्रकार
भुरभुरे कैनवस में धसकता
अपना चित्र देखता हो.