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संसार रथ का सारथी / भावना जितेन्द्र ठाकर

सैंकड़ों गाथाएँ कही गई नारी पीर की कथनी पर,
उस झुकी रीढ़ की कर्म कहानी न गायी गई कहीं पर।

संसार रथ का सारथी आँखों से दर्द की किरकिरी झरें,
वहन कर रहा परिवार का हँसी में सबकी रंग भरे।

वृक्ष की भाँति छाँह देता सीना तानें पाँव बढ़ाता
अग्नि पथ पर चले मर्दाना, रुके नहीं थमे नहीं चाहे कितनी आहें भरे।

कंटको के शर पर चलकर बागबान बन यत्न करें,
अपने सपने जला-जलाकर उम्र की यात्रा ख़त्म करें।

लहरों से लड़ता कष्टों को सहता चढ़कर,
गिरकर फिर संभलता,
कोशिश करता उत्साह दुगना तन-मन में बार-बार भरे।

कँधों पर असबाब उठाता ऋण कहाँ कोई उसका चुकाता,
बचपन से पचपन के युद्ध में योद्धा बनकर उभरे।

त्याग की मूरत ईश-सी सूरत मर्द-सी ना बन पाए औरत,
पसीजता खुद संघर्षों से महक परिवार उपवन में भरे।

जीवन खेत पर तन को जोत कर तिनका-तिनका जोड़े,
पिता टूटकर विहंग की ख़ातिर नीड़ बुनकर सुख-सुविधा सारी भरे।