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सकल जग हरि कौ रूप निहार / हनुमानप्रसाद पोद्दार

(राग गोड-मल्हार-तीन ताल)
 
सकल जग हरि कौ रूप निहार।
हरि बिनु बिस्व कतहुँ को‌उ नाहीं, मिथ्या भ्रम-संसार॥
अलख-निरंजन, सब जग यापक, सब जग कौ आधार।
नहिं आधार, नाहिं को‌उ हरि महँ, केवल हरि-बिस्तार॥
अति समीप, अति दूर, अनोखे,जग महँ, जग तें पार।
पय-घृत, पावक-काष्ठ , बीज महँ तरु-फल-पल्लव-डार॥
तिमि हरि व्यापक अखिल बिस्व महँ, आनँद पूर्न अपार।
एहि बिधि एक बार निरखत ही भव-बारिधि हो पार॥