सकुञ्च भरे अधखिले सुमन में / हनुमानप्रसाद पोद्दार
(राग भैरवी)
सकुञ्च भरे अधखिले सुमन में छिपकर रहता प्रेम-पराग।
नव-दर्शनमें मुग्ध प्राणका होगा मूक मधुर अनुराग॥
भय-लज्जा, संकोच-सहम, सहसा वाणीका निपट निरोध।
वाचा-रहित, नेत्र-मुख अवनत, हास्य-हीन, बालकवत् क्रोध॥
जो उसने था किया, इसी स्वाभाविक रसका ही व्यवहार।
तो देना था तुम्हें चाहिये उसे हर्षसे अपना प्यार॥
हृदयंगम करना आवश्यक था वह सरल प्रणयका भाव।
नहीं तिरस्कृत करना था नवप्रेमिक का वह गूँगा चाव॥
प्रथम मिलनमें ही क्या समुचित है समस्त संकोच-विनाश।
क्या उससे वस्तुतः नहीं होता नवीन मधु-रसका नाश॥
नव कलिकाके लिये चाहना असमयमें ही पूर्ण विकास।
क्या है नहिं अप्राकृत और असंगत उससे ऐसी आस?
क्या नव-वधू कभी मुखरा बन कर सकती प्रियसे परिहास।
क्या वह मूर्खा या संदिग्धा बन सह सकती मिथ्या त्रास?
क्या वह प्रौढ़ा-सदृश खोल अवगुण्ठन कर सकती रस-भन्ग?
क्या बहने देती, मर्यादा तजकर, सहसा हास्य-तरंग?
क्या ‘मूकास्वादनवत्’ होता नहीं प्रेमका असली रूप?
क्या उसमें है नहीं झलकता प्रेम-पयोधि गँभीर अनूप?
क्या है नहीं प्रसन्न इष्ट को मानस पूजा ही करती?
क्या वह नहीं बाह्य पूजासे बढक़र इष्ट हृदय हरती॥
यदि नव प्रेमिकने तुमको पूजा केवल मनसे ही नाथ?
स्तिभत, किपत, मुग्ध हर्षसे कह-सुन कुछ भी सका न नाथ॥
क्या इससे हे प्रेमिकबर प्रभु! हुआ तुम्हारा कुछ अपमान!
क्या इसमें अपराध मानते सरल भक्त का हे भगवान!॥
यदि ऐसा है नहीं देव! तो क्यों फिर होते अन्तर्द्धान?
क्यों दर्शनसे वञ्चित करते, क्यों दिखलाते इतना मान॥
क्यों आँखोंसे ओझल होते, पता नहीं क्यों बतलाते?
क्यों भक्तों को सुख पहुँचाने नहीं शीघ्र समुख आते?