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सखि! कोउ मेरो चित्त चुरायो / स्वामी सनातनदेव

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राग गूजरी, तीन ताल 26.9.1974

सखि! कोउ मेरो चित्त चुरायो।
ऐसो लियो न दियो फेरि, फिर, जाने कहाँ दुरायो॥
याको मोहिं न कोउ परेखो<ref>पश्चात्ताप</ref> पै वह इतै न आयो।
जो आतो तो तनहुँ देती, रहतो मन न परायो॥1॥
तन-मन दोउ की स्वामी मेरो चोर मोहिं अति भायो।
तन-मन वाके, पै मैंने तो चित्तचोर अपनायो॥2॥
वाकी मैं, वह मेरो सजनी! यह सम्बन्ध सुहायो।
नेह-नगर में वास हमारो, जहाँ न कोउ परायो॥3॥

शब्दार्थ
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