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सखि! कोउ मो मन आय गह्यौ री! / स्वामी सनातनदेव

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राग तैलंग, तीन ताल 14.9.1974

सखि! कोउ मो मन आय गह्यौ री!
नयनन के मग गयो हियेमें, तबसों तही रह्यौ री॥
कहा कहों सखि! वाको टोना, ऐसौ चित्त नह्यौ<ref>बँध गया</ref> री।
करि-करि जतन हार हौं मानी, पलहुँ न कहूँ गयो री॥4॥
माखन-सी मृदिमा सखि! वाकी, अग-जग मनहुँ मह्यौ<ref>मठा</ref> री।
सुठि सिंगार मथ्यौ जब विधिना तब यह सार लह्यौ री॥2॥
तन मन प्रान भये वाही के, अपनो कछु न रह्यौ री।
रोम-रोम में रस-सो सरसै, सब कछु वही भयो री॥3॥
कछु न सुहाय भाय अब आली! खाली हिय न रह्यौ री।
कहाँ धरूँ अग-जग की माया, अब लौं बहुत सह्यौ री॥4॥
अब मैं वाकी वह मेरी सखि! निज-पर भाव बह्यौ री।
जित देखूँ प्रीतम ही दीखै, और न कछू रह्यौ री॥5॥
अद्भुत रस वाको कछु आली! ऐसो हियो भयो री।
जो कछु अबलौं रह्यौ हिये में, वाने सबहि दह्यौ री॥6॥

शब्दार्थ
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