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सखि! मोहिं हरि बिनु कछु न सुहात / स्वामी सनातनदेव

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राग मारवा, ताल रूपक 20.8.1974

मोहिं सखि! हरि बिनु कछु न सुहात।
मेरो हियो रह्यौ हरिजू ने, रहत तहीं मडरात॥
कहा कहों या हियकी हिलगन, बहु विध मोहिं नचात।
बरियाई<ref>जबरदस्ती</ref> मेरो मन-पंछी उत-उत ही उड़ि जात॥1॥
लोक-लाज कुल-कानि मोहिं सखि! अब कहुँ कछु न लखात।
स्याम-पिया को भयो हियो यह, सुनै कौन की बात॥2॥
हरि की भई न नई बात यह, जद्यपि नई दिखात।
हौं तो सदा-सदासों उनकी अब लौं रही भ्रमात॥3॥
उनकी ही उनकी हों अब मैं, अपनो कोउ न लखात।
मोकों और न कारज दूजो, करहुँ उनहि की बात॥4॥
सदा उनहि की रति में राती, निज-पर भेद न भात।
सब कछु है उनही की लीला, सब कछु वही लखात॥5॥

शब्दार्थ
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