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सखी, आई शरत / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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प्रियतम
फिर मनहर शरद आ गयी
आकास में अकेले ही
चमक रहा है अगस्त
कास फुला गये
और गाँव के बच्चे सब
सुबह-सुबह
अपनी मुट्ठियाँ काँखों में दबाए
चले जा रहे हैं
खुली देह ही
किटकिटाते दाँत
ठंड को बांधे।

आकाश अपने समर्पण से
धरती को तृप्त कर रहा है
लेकिन मुझे तो
अभी भी नहीं नींद है
न है चैन।

प्रियतम
शरत के यह शीत कण
मेरी ही आँखों के आँसू हैं
सभी जगहों में बिखरे
जो बता रहे हैं
कि मैंने तुम्हें सब जगह ही
रो-रो कर खोजा है।

हाय, इस शरत ऋतु में
हंसों का तो आगमन हुआ
लेकिन मेरा ही हंस.......
हाय !
हंस की प्रतीक्षा में
कहीं मेरा हंसा ही न उड़ जाए

घर के समीप ही
बाबा के पोखर में
चक्रवाक का जोड़ा
चोंच से चोंच लड़ाता है
जोर से रव करता है
क्या मुझे ही चिढ़ाता है।

धान पुष्ट होने पर आए
चारों ओर हरियाली है
लाल-लाल कमल के फूल
साफ-सुथरे पोखर के जल पर
भौरें का गुंजार सुन कर
सिहरते हैं
धरती का अंग-अंग।

गमकने लगा है
नई-नई सुगन्धों को पाकर
सरसों के पीले-पीले फूलों से
धरती
उबटन लगाई बिहौती लड़की-सी
सज रही है धरती
अमलतास की चुनरी
शेफाली की अंगिया
गेंदे, जूही और चमेली का लहंगा
किस्म-किस्म के धानों के
बाजूबन्द और कमरबन्द
सबकुछ ही पहनकर।

प्रियतम
यह धरती आज
सचमुच में बावली हो गई है
निकल पड़ी है
व्याह से पहले ही
अपने प्रियतम से मिलने।

शरत की यह चाँदनी
इतनी स्वच्छ
इतनी निर्मल है
जैसे लगता है
शरत ने दुग्ध-स्नान किया हो।

आश्विन का महीना
स्वाति ने बरस कर
चातकी की प्यास बुझाई
समीप ही है चन्दन नदी
जिसकी पतली धार के किनारे
खड़ी सारसी की बोली
क्यों नहीं सुहाती है ?
प्रियतम
देखो फिर आ गया दीवाली का मेला
जरूर बिकते होंगे ईख
पूरे गाँव के घर-घर में
दीये जल उठे

एक मेरा ही घर
अंधकार में डूबा है
जैसे गाँव भर का अंधेरा
यहाँ इकट्ठा हो गया हो।

दीदी-माँ
और भाभी पूछती हैं
‘‘क्या लाऊँ तुम्हारे लिए मेले से’’
तो कह पड़ती हँू ‘ईख’
सुन कर सभी हंस पड़ती हैं।

क्या कहूँ प्रियतम
माँ के कहने पर
जब छठ का अर्ध्य देने लगी
तो तुमसे
मिलने की इच्छा कर
एक सूप मैंने भी गछ लिया

पूजा में
कहाँ खाया गया मुझसे
तिलसंक्रान्ति में
दही-चूड़ा और लड़ुआ
नवान्न भी बीता ऐसे ही

प्रियतम
क्या करती।
खाया ही नहीं जाता है
तुम्हारे खिलाए बिना
कैसे खाती ?

बस कुछ खा लेती हूँ
इस देह को जो बचाना है
कभी तुमने
अधिकार जताते कहा था
कि तुम्हारी यह देह
सिर्फ तुम्हारी ही नहीं है
मेरी भी है।

इसलिए
बस, इसीलिए
अब तक टिकाती रही हूँ
यह देह
तुमहारी ही बात मानती हुई
इसे संभाल रखी हूँ
विवश होकर।

लेकिन बताओ तो
तुम्हारी यह बात
कब तक संभाले रखूंगी ?