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सखी, ये हैं गीत वे ही / कुमार रवींद्र

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सखी!
ये हैं गीत वे ही
जो कभी तुमने रचे थे कनखियों से
 
मीत, सोचो
सगा कितना
आँख का परिचय हमारा
उस समय का
जब हमारा नेह था
बिल्कुल कुँवारा
 
चितवनों का
मिलन था वह
मेंह का या बिजलियों से
 
सुनो, सजनी
स्वर्णयुग था
देह के इतिहास का वह
छुवन थी
मानो परस था
ओसभीगी घास का वह
 
महक कैसी
उठी थी तब
साँस के जलते दियों से
 
तुम नदी-सी बहीं थीं
हम खूब
उसमें थे नहाये
जो सुने थे
उस घड़ी में
गीत हमने वही गाये
 
बसे भीतर -
वही सुर तो
आ रहे हैं मंदिरों की घंटियों से